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(३) तुभ्यम्
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युष्मद्
प्रकृति में सम्प्रदानत्व
एवं एकत्व रहा हुआ
-
युष्मद्
युष्मद्
युष्मद्
तुभ्य
मह्यम् :
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तुभ्य द् +
o
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ङे
(१)
तदर्थवाचक चतुर्थी-(२)
विभक्ति एकवचन
का प्रत्यय
स्थानिन्
अम् आदेश (में ‘ङे’
बुद्धि)
पररूप एकादेश
/
होकर
अम्
अम्
[7]
अम्
चतुर्थी सम्प्रदाने । २-३-१२ और स्वौजसमौट्० ४ - १ - २ सूत्र से चतुर्थी विभक्ति एकवचन के /- ङे/ प्रत्यय का चयन किया जाता है ।
—
(३) ङे प्रथमयोरम् । ७-१-२८ सूत्र से - ङे/ के स्थान में /- अम् / आदेश होता है ।
(४) स्थानिवदादेशो ऽनल्विधौ ।
सूत्र से स्थानिभूत /ङे/ का गुणधर्म /- अम्/ आदेश में आरोपित किया जायेगा । अतः 'अम्' में 'ङे' बुद्धि करके
से
(५) तुभ्य - मह्यौ ङयि । ७–२–९५ युष्मद् के मपर्यन्त भाग को 'तुभ्य' आदेश होता है ।
तुभ्यम् ॥
यहाँ पर भी देखा जा सकता है कि पाणिनि जब भी किसी ध्वनिशास्त्रीय नियम के आधार पर /- ङे / प्रत्यय का / - अम्/ रूप में परिवर्तन ( या 'युष्मद्' प्रकृति से 'तुभ्य' ऐसा परिवर्तन) नहीं कर सकते तब स्थान्यादेशभाव की युक्ति का आश्रयण करते हैं । परन्तु महत्त्वपूर्ण बात यहाँ पर यह है कि पाणिनि ने स्थान्यादेशभाव की प्रयुक्ति से
(६) शेषे लोपः ७-२-९० से विभक्ति पर में रहते युष्मद् के अवशिष्ट (द्) भाग का लोप होता है ।
(७) अन्त में, अतो गुणे । ६-१-१७ से पररूप एकादेश हो कर रूपसिद्धि सम्पन्न होती है ।
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