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द्वितीय सर्ग
जांबुवती- पाणिग्रहण
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श्लोक
कृष्णेनान्येद्युरायातो नारदोऽभ्यर्च्य भाषितः । किं दृष्टं किंचिदाश्रयें भ्रमसि त्वं हि तत्कृते ॥ १९ नारदोऽप्यब्रवीद् दृष्टं श्रृणु वैताढ्यपर्वते । जांबवान् खेचरेन्द्रोऽस्ति शिवचन्द्रा च तत्प्रिया || २० विष्वक्सेनस्तयोः सूनुः कन्या जांबवती पुनः । रूपेण तस्याः सदृशी न कापि त्रिजगत्यपि ॥२१ चुपई 1
एइ वचनि नारायण हसी गगनिथकी किम परणी जाइ तव नारद कहइ हरिनइ हसी तिहां जइनइ परणु राय ते सांभलि सपराणुं थयु जांबवती तव दीठी नारि कही नारदरखि जेहवी हरी नारिनइ चालिइ जिसिइ हण हण करी हकारिउ घणुं कृष्णराइ वलि ते सवि हणी दुख वइरागिई संजिम लीइ विषसेन आविउ घण भाइ जांबुवतीनइ परणी करी रुखमणिनइ पासइ आवासि बहिनपणा बेहुजिणीइ कीध बीजइ सर्ग जांबुवती हुइ 3. स्वर्यि
1. चपइ 2. ठाया
कहइ बात ते मन उल्हसी ते परण्या विण सुख नवि थाइ खेलण गंगा आवइ धसी बल न हुइ तु बइसु ठाय गज-रथ-तुरंगम-दल लेई गयु एह सरखी नवि इणि संसारि मय दीठी कुमरी तेहवी राय जोवानइ आविउ तिसिई कृष्ण देखि बल धाइ आपणुं जांबराय कीधु रेवणी कर्म वाछित तप करि पालीइं कृष्णरायना प्रणमइ पाय
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पहुता नयर द्वारिकापुरी जांबवती मेल्ही ते पासि कृष्णमुरारइ मांन घण दीध श्रीजइ बात कहुं जूजूइ 4
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4. अंते : जांबुवती - पाणिग्रहण - नाम्ना द्वितीय स्वर्य.
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