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प्रथम सर्ग
(कृष्ण द्वारा सत्यभामानो उपहास)
तव नारायण करइ कुताल रुखमणिनु लीयु उगाल गांठि बांधि संपनु तिहां सतिभामा मंदिर छइ जिहां सतिभामा हरि दीठउ नयणि रुदन करइ न बोलइ वयणि कहि वात बहू परि सांभरी कवण दोसि स्वामी परहरी
दूहा हरि समझावी नारिनय मधुरां वयण कहेइ कपटरूप निद्रा करइं से जतलि गंठि धरेइ गांठि झलती देखी करि सतिभामा छोडंति सुगंधा परिमल महमहइ सयल अंगि विलपति अंगि लगाडिउ देखि करि इम बोलइ गोपाल राणी तुम्हे ए सिउं करु रुखमणितणउ उगाल सतिभामा विलखी वदनि हरिनइ कहइ ततकाल
तुम्हे कूड कपटी हुआ ए मम बहिनि उगाल (सत्यभामा द्वारा रुक्मिणी साथे मेळाप करावधानो प्रस्ताव)
गंधरवीवीवाह करी जे तम्हि आणी नारि रूप अनोपम तेहनु जोईइ कृष्णमुरारि कहु केहनइ पगि लागसि इ बोलइ गोपीराय सतिभामा कहइ हूं वडी लागइ माहरइ पाय मुझ मनि अति उमाहलुं देखण रुखमणिरूप
वनमांहि श्रीधरि मेलसिउ इम कही चालि भूप (श्रीकृष्णनी प्रयुक्ति - सत्यभामा अने रुक्मिणीनुं मिलन)
नारायण उठी गया नारी रुखमणि पासि वाडी बहु भीतिर फली चालु देखण जासि सुखासणि चडी आवीया लिखिमीतणइ भुवनि स्वेतवस्त्र आभरणसिउ सोहइ रूपणि तन 1. सगंध
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