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तव त्रिहुं मनि हुउ उछाह महूयरसाद ते मंगलच्यार
मंडप रचीउ फूलइ जाइ पाणिग्रहण करी रुखमिणी
प्रद्युम्नकुमार - चुपई
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लगन आज छइ करु वीवाह सूया वेद पढइ झंकार बलिभद्र दीइ हथवेलउ आंय वनमइ वसी बात कही घणी
श्लोक
बभाषे रुक्मिणी कृष्णं पत्न्यस्तव महर्द्धयः । प्रदत्ताः पितृभिः संति सहायातपरिच्छदाः ||१६ एकाकिन्यहमानीता बंदीव भवता प्रिय । हसनीया यथा तासां न भवामि तथा कुरु ॥१७ करिष्ये त्वां तदधिकामित्युक्त्वा रुक्मिणीं स्वयम् । सत्यभामागृहाभ्यर्णप्रासादेऽमुचदच्युतः ||१८
चुपई
( श्रीकृष्णनुं रुक्मिणीनी साथे द्वारिका - आगमन )
नारायण परणी पुरि गयु गूडी बांधी घरि घरि बारि रूपणिसिउं श्रीकृष्णमुरारि देखी लोक जय जय भणइ
( सत्यभामाना दूतनुं निवेदन ) सर्व विवस स्त्री भोग करंति तिणि दुखि करी विलखी खरी सतिभामाइ दूति मोकली कवण दोस ते कवण विचारि सुणी वात हलधर गयां तिहां इस वात वीनती घणी
छपनकोडि नइ आनंद यु मंगल गावइ सूहवि नारि
हसतां पयठां नयरमझारि बे पहुंता मंदिर आपणइ
सतिभामानी छाडी विंति सुकि-साल दुख ते सांभली सुणउ बलिभद्र वात पतली सुद्धि न पंछइ कृष्णमुरारि
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राय नारायण बइठा जिहां सार करु सतिभामातणी
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