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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ सारिपुत्त ने कहा - "आयुष्मान् ! आस्रव तीन प्रकार के हैं-काम- आस्रव, भवआस्रव तथा अविधा - आस्रव । ३८ - "आयुष्मन् ! क्या कोई ऐसा मार्ग है, परिव्राजक ने सारिपुत्त से पुनः जिज्ञासा की - " जिसका अवलम्बन करने से आस्रवों का प्रहाण - नाश हो सके ?" सारिपुत्त ने कहा - "आयुष्मन् ! अष्टांगिक मार्ग ही वह मार्ग है, जिसके अवलम्बन से आस्रवों का प्रहाण - नाश हो सकता है; अतएव आयुष्मन् ! उस मार्ग पर सतत गतिशील रहने में कभी प्रमाद - असावधानी नहीं करनी चाहिए ।"" एक समय का प्रसंग है भगवान् तथागत अनाथपिंडिक के जेतवन आराम में विराजित थे । भगवान् ने वहां उपस्थित भिक्षुओं को सम्बोधित कर कहा - " भिक्षुओ ! सब्बासव—समस्त आस्रवों के संवर - अवरोध का उपदेश देता हूँ । तुम लोग भलीभांति श्रवण करो, मन में अवधारणा करो ।" " भिक्षु बोले - "हां, भन्ते ! हम ऐसा ही करेंगे । भगवान् ने कहा - " भिक्षुओ ! मैं जानता हूं, देखता हूँ, तदनुसार आस्रवों—मलों के क्षय-नाश के सम्बन्ध में कहता हूँ, अनजाने अनदेखे नहीं कहता । “भिक्षुओ ! समझते हो ? क्या जानने से, देखने से आस्रवों का नाश होता है ? "देखो, योनिसोमनसिकार से - यथावत् रूप में, ठीक रूप से मन में धारण करने से मन द्वारा उनके यथार्थं स्वरूप को स्वायत्त कर लेने से अनुत्पन्न आस्रव उत्पन्न नहीं होते तथा उत्पन्न आस्रव क्षीण हो जाते हैं । "अयोनिसोमनसिकार - यथावत् रूप में, ठीक रूप में मन में धारण न करने से— मन द्वारा उनके यथार्थ स्वरूप को स्वायत्त न करने से अनुत्पन्न आस्रव उत्पन्न होते हैं तथा उत्पन्न आस्रव बढ़ते हैं । आस्रवों के यथार्थ स्वरूप को समझ लेने के साथ-साथ समझ पूर्वक क्रियानुरत होने का भाव भी यहाँ अध्याहृत है । " तथागत ने कहा -" - “भिक्षुओ ! वे कौन से आस्रव हैं, जो संयम द्वारा विनष्ट किये जा सकते हैं ? "भिक्षुओ ! एक भिक्षु ज्ञानपूर्वक अपने चक्षुइन्द्रिय का - नेत्रों का संयम करता है, वैसा कर विहार करता है, नेत्रों को संयमरहित रखने से जो उत्तापकारी आस्रव उत्पन्न हो सकते हैं, नेत्रों के संयम के कारण उस भिक्षु के वे उत्तापकारी आस्रव उत्पन्न नहीं होते । “भिक्षुओ ! जो ज्ञानपूर्वक अपने श्रोत्रेन्द्रिय का - कानों का संयम करता है, वैसा कर विहार करता है, कानों को संयमरहित रखने के कारण, भिक्षुओ ! जो उत्तापकारी आस्रव उत्पन्न हो सकते हैं, कानों के संयम के कारण उस भिक्षु के वे उत्तापकारी आस्रव उत्पन्न नहीं होते । " भिक्षुओ ! जो ज्ञानपूर्वक अपने घ्राणेन्द्रिय का - नासिका का संयम करता है, वैसा १. संयुक्त्त निकाय, दूसरा भाग, आसवसुत्त ३६.८ २. मज्झिमनिकाय, सब्बासवसुत्तन्त १.१.२ पृष्ठ ६ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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