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तत्त्व : आचार : कथानुयोग]
तत्त्व संवर के दश प्रकार बतलाये गये है-श्रोतेन्द्रिय-संवर, चक्षु इन्द्रिय-संवर घ्राणेन्द्रियसंवर, रसनेन्द्रिय-संवर, स्पर्शनेन्द्रिय संवर, मन-संवर, वचन-संवर, काय-संवर, उपकरणसंवर और सूचीकुशाग्र-संवर।
जो जीव प्राणिवध मृषावाद, अदत्त (अदत्तादान) मैथुन तथा परिग्रह से विरत रहता है, रात्रि-मोजन से विरत रहता है वह अनास्रव-आस्रवरहित होता है।
जो पांच समिति युक्त होता है-चलने-फिरने बोलने, आहार पानी की गवेषणा करने, अपने पात्र , उपकरण अन्यत्र रखने, उठाने, लेने आदि में समित सुनियमित, सुसंयत होता है, तीन गुप्तिगुप्त-मानसिक, वाचिक तथा कायिक प्रवृत्तियों में संयमयुक्त होता है, जो कषायरहित एवं जितेन्द्रिय होता है, निरहंकार और निःशल्य कुटिलता-रहित होता है, वह अनास्रव होता है।
जो उपर्युक्त गुणयुक्त होता है, वह भिक्षु राग-द्वेष द्वारा अजित-संचित कर्मों को क्षीण कर डालता है। इस सम्बन्ध में एकाग्रचित्त होकर सुनो-जैसे किसी बड़े तालाब के जल आने के मार्ग रोक देने से, संचित जल उलीच देने से तथा सूरज का ताप लगने से वह सूख जाता है, उसी प्रकार संयत पुरुष के पाप-कर्मों का अनास्रव हो जाने पर पाप के आने का मार्ग रोक देने पर करोड़ों जन्मों के संचित कर्म तप द्वारा निर्जीर्ण-क्षीण हो जाते हैं।
भगवान् तथागत ने कहा-“भिक्षुओ ! आस्रव के तीन भेद हैं-काम-आस्रव, भवआस्रव तथा अविधा-आस्रव ।
“भिक्षुओ ! इन तीन आस्रवों के प्रहाण या नाश के लिए चार स्मृति प्रस्थानों की भावना से अनुप्राणित बनो । काया, वेदना, चित्त तथा धर्म-ये चार स्मृति प्रस्थान कहे गये हैं।
"भिक्षुओ ! आहार से-खाद्य पेय आदि से काया का -शरीर का समुदय-उत्पत्ति या उद्भव होता है । आहार के अवरोध से वह-कायोद्भव मिट जाता है । स्पर्श से वेदनाअनुकूल, प्रतिकूल, प्रिय, अप्रिय का भान होता है। जब स्पर्श का अवरोध हो जाता है तो यह सुखात्मक, दुःखात्मक प्रतीति लुप्त हो जाती है। नाम-रूप से चित्त का उदभव होता है । नामरूप के अवरुद्ध-निरुद्ध हो जाने पर चित्त का विलय हो जाता है। मनन से-मानसिक विचारणा से धर्मों का उद्भव होता है। उसके अवरोध से धर्म विलीन हो जाते हैं।"
जम्बखादक परिव्राजक ने सारिपुत्त से पूछा- आयष्मान सारिपत्त ! लोग आस्रव-आस्रव-यों बार-बार चर्चा करते हैं । आयुष्मन् ! आस्रव क्या हैं ? कौन-कौन से हैं ?"
१. स्थानांग सूत्र,स्थान १०, सूत्र १० २. उत्तराध्ययन सूत्र ३०.२-६ ३. संयुत्त निकाय, दूसरा भाग, आसव सुत्त ४५.५.१०
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