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________________ तत्त्व : आचार तत्त्व सारिपुत्त ने कहा-"आयुष्मन् ! जब सम्यक्-दृष्टि-शील-उत्तम आचार, श्रुतधर्मशास्त्र के श्रवण, साक्षात्कार--मावना आदि प्रक्रियाओं को जानने हेतु अभिज्ञ-विशेष जानकर पुरुष से बातचीत, विचार-परामर्श, शपथ-समाधिनिष्ठता एवं विपश्यना-अन्तक्षिण, परमज्ञान से युक्त होता है तो वह सम्यक्दृष्टि चेतोविमुक्तिफलवत्ता, तोविमुक्तिफलमाहात्म्यवत्ता, प्रज्ञाविमुक्तिफलवत्ता तथा प्रज्ञाविमुक्तिफलमाहात्म्यवत्ता अधिगत कर लेता है। मात्मप्रेक्षण बहिर्दर्शन स्थूल, लोकिक या व्यावहारिक है। सूक्ष्म दर्शन, जो यथार्थ दर्शन है, केवल आत्मप्रेक्षण द्वारा लभ्य है, जो जीवनगत समग्र कार्य-कलापों का सही अंकन करता है। आत्मा का आत्मा द्वारा संप्रेक्षण-सम्यक् रूप में परिलोकन करे-अपने द्वारा अपना अन्त निरीक्षण करना चाहिए। ___अपने द्वारा किये गये कृत्य करने योग्य कर्म-सत्कर्म तथा अकृत्य-न करने योग्य कर्म-दुष्कर्म का स्वयं ही अवेक्षण-निरीक्षण करना चाहिए।' प्रज्ञा द्वारा समीक्षण धर्म एवं अध्यात्म का सम्बन्ध प्रज्ञा या विवेक के साथ जुड़ा है । प्रज्ञाहीन पुरुषार्थ द्वारा धर्म के यथार्थ स्वरूप का आकलन नहीं किया जा सकता। प्रज्ञा द्वारा, जिससे तत्त्व विनिश्चय होता है, धर्म का समीक्षण-परीक्षण करना चाहिए। प्रज्ञा द्वारा श्रुत का-शान का विनिश्चय-विशेष निश्चय–निर्णय होता है। १. मज्झिम निकाय, महावेदल्ल सुत्तन्त १.५.३ २. संपिक्खए अप्पगमप्पएणं ।। —दशवकालिक चूलिका २.१२ ३. अत्तनो व अवेक्खेय्य कतानि अकतानि च ॥ -धम्मपद ४.७ ४. तओ केसि बुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी। पन्ना समिक्खए घम्म, तत्त तत्तविणिच्चियं ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र २३.२५ ५. पा सुत्त-विनिच्छनी। । -थेरगाथा ५५४ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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