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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] तत्त्व चारित्र सधता है । सम्यक्त्व तथा चारित्र-दोनों युगपत्-एक साथ भी हो सकते हैं अथवा पहले सम्यक्त्व आए, फिर चारित्र-निष्पत्ति हो, ऐसा भी संभव है। सम्यक् दर्शन-सम्यक् दृष्टि के बिना सम्यक् ज्ञान नहीं होता । सम्यक् ज्ञान के बिना सम्यक् चारित्र-गुण नहीं आता। चारित्र-गुण-विहीन पुरुष कर्मों से मुक्त नहीं होता। कर्मों से मुक्त हुए बिना निर्वाण- सिद्धावस्था प्राप्त नही होती। "भगवन् ! दर्शन-सम्पन्नता से---सम्यक् दर्शन से--(क्षायोपशमिक) सम्यक्त्व से जीव क्या प्राप्त करता है ?" भगवान ने कहा- "दर्शन-सम्पन्नता से--सम्यक् दर्शन से जीव मिथ्यात्व का, जो भव-भ्रमण-जन्म-मरण का हेतु है, छेदन-नाश करता है । वह अपने में इतना सुस्थित होता है कि आगे-उत्तरवर्ती काल में उसके सम्यक्त्व का दीपक विध्यापित नहीं होताबुझता नहीं। सम्यक्त्व के अविध्यापित दीपक से युक्त जीव अनुत्तर-अति उत्तम ज्ञान, दर्शन द्वारा अपने को संजोता हुआ सम्यक् भाव से विहरण करता है।"२ जो जीव मिथ्या दर्शन में अनुरक्त, सनिदान - फलोद्दिष्ट धर्म क्रियायुक्त एवं हिंसानुगत स्थिति लिए मरते हैं, उन्हें आगे बोधि-सम्यक्-दर्शन-सम्यक्त्व प्राप्त होना दुर्लभ है। __ जो सम्यक्-दर्शन में अनुरक्त, फलोद्दिष्ट-धर्म क्रिया-रहित एवं शुक्ल लेश्या-अन्तर्भावात्मक उज्ज्वलतामय स्थिति में प्राण-त्याग करते हैं, उन्हें आगे बोधि-सम्यक्-दर्शन-सम्यक्त्व प्राप्त होना सुलभ है। सद् देव, सद् धर्म, सन्मार्ग तथा सत् साधु-इनमें श्रद्धा रखना, सद् विश्वास लिए रहना सम्यक्त्व-सम्यक् दर्शन है । इसके प्रतिकूल श्रद्धा रखना मिथ्यात्व-मिथ्या दर्शन है। जो पुरुष अबुद्ध-धर्म के यथार्थ तत्त्व से अनभिज्ञ~-अनजान हैं, किन्तु, जगत् में महाभाग-बहुत प्रभावशाली हैं, वीर-सशक्त हैं, किन्तु, असम्यक्दर्शी हैं-असम्यक्-दृष्टि हैं, उनका सम्यक्-दर्शन-रहित पराक्रम-दान, तप, शील, अध्ययन, यम, नियम आदि में किया गया उद्यम अशुद्ध होता है। उससे कर्म-बन्ध-मूलक फल निष्पन्न होता है। जो बुद्ध हैं--पदार्थों के सत्य-स्वरूप के ज्ञाता हैं, महाभाग हैं, वीर-कर्म को विदीर्ण करने में समर्थ हैं, सम्यकदर्शी-सम्यक्-दृष्टि हैं, उनका दान, तष, शील, अध्ययन, यम, नियम आदि में किया गया उद्यम शुद्ध होता है। उससे कर्म-बन्ध-मूलक फल निष्पन्न नहीं होता है । "आर्य ! तुम यहाँ-इस जगत् में जन्म को जानो-जन्म का रहस्य समझो, वृद्धि को-जीवन के विस्तार-क्रम का अवलोकन करो, भूतों--प्राणियों के क्रम-बन्ध तथा तज्जन्य १. उत्तराध्ययन सूत्र २८-१४-३० २. उत्तराध्ययन सूत्र २६.६० ३. उत्तराध्ययन सूत्र ३६-२६३-६४ ४. अभिधान राजेन्द्र भाग ७, पृष्ठ ४८८ ५. सूत्रकृतांग १.८.२२.२३ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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