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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन वह निसर्ग - रुचि, [ खण्ड : ३ उपदेश - रुचि, आज्ञा - रुचि, सूत्र - रुचि, बीज - रुचि, अभिगम - रुचि, विस्तार - रुचि, क्रिया - रुचि, संक्षेप रुचि तथा धर्म-रुचि के रूप में विभक्त है । उपदेश के बिना स्वयं पूर्व-जन्म के संस्कारों के कारण, प्रातिभ ज्ञान के कारण जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, सम्वर, बन्ध, निर्जरा तथा मोक्ष इनमें रूचि एवं श्रद्धा रखना निसर्ग - रुचि है । जो प्राणी स्वयं- • उपदेश के बिना पूर्व जन्म के संस्कार या प्रतिभा आदि के कारक तीर्थंकर - प्ररूपित जीव आदि पदार्थों में चार प्रकार से — द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावपूर्वक अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भावपूर्वक – ये ऐसे ही हैं, अन्यथा नहीं है, श्रद्धा रखता है, वह निसर्ग- रूचि के अन्तर्गत आता है । ३२ जो सर्वज्ञ के अथवा असर्वज्ञ गुरुजन के उपदेश द्वारा जीव, अजीव आदि तत्त्वों में श्रद्धा करता है, वह उपदेश - रुचि के अन्तर्गत आता है । जिसके राग, द्वेष, मोह तथा अज्ञान अंशतः अपगत हो गया है, जो गुरु की आज्ञा मात्र से जीव आदि तत्त्वों में रुचिशील तथा श्रद्धावान् होता है, वह आज्ञा - रुचि कहा जाता है । जो अंग - आगम - आचारांग आदि अंग-प्रविष्ट सूत्रों, उत्तराध्ययन आदि अंग- बाह्य सूत्रों के अध्ययन द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त करता है, वह सूत्र - रुचि कहा जाता है । जैसे तेल की बूँद जल में प्रसृत हो जाती है, उसी प्रकार जीव आदि किसी एक ही तत्त्व द्वारा जिसमें अन्य तत्त्व प्रसार पा लेते हैं- एक तत्त्व में उत्पन्न श्रद्धा सब तत्त्वों में व्याप्त हो जाती है, वह बीज - रुचि कहा जाता है। जो ग्यारह अंग-सूत्र, प्रकोण-सूत्र तथा दृष्टिवाद में जो श्रुत ज्ञान निरूपित है, उसको अर्थ-रूप में जान लेता है, उसमें श्रद्धावान् होता है, वह अभिगम - रुचि कहा जाता है । जो द्रव्यों के समग्र भावों को पर्यायों को प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों द्वारा समस्त नयविधिपूर्वक – नैगम आदि नयों के माध्यम से जान लेता है, वह विस्तार रुचि कहा जाता है । जो दर्शन, ज्ञान, चरित्र, तप, विनय, सत्य, समिति तथा गुप्ति - एतन्मूलक क्रियाओं के अनुसरण में भावपूर्वक रुचिशील होता है, श्रद्धा रखता है, वह क्रिया रुचि कहा जाता है। जिसने मिथ्याभिमत को स्वीकार नहीं किया, दुतर शास्त्रों का ध्यान अर्जित नहीं किया, जो जिन-प्रवचन में - सर्वज्ञ - निरूपति सिद्धान्तों में भी निपुण नहीं है— तत्सम्बन्धी ज्ञान भी जिसे स्वायत्त नहीं है, किन्तु, जो श्रुत श्रद्धायुक्त होता है, वह संक्षेप - रुचि कहा जाता है । जो सर्वज्ञ - प्रतिपादित गति, स्थिति आदि के निरपेक्ष सहायक धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि श्रुत-धर्म- -आगम स्वरूप, तद्गत सिद्धान्त एवं चरित्र धर्म में श्रद्धाशील होता है, वह धर्म - रुचि कहा जाता है । परमार्थ संस्तव – यर्थाथ तत्वों का संस्तव — गुणाख्यान, मनन, सत्तत्त्वों के परिज्ञाता आचार्य,उपाध्याय, साधु आदि की सेवा तथा सम्यक्त्व से नियतित जनों एवं मिथ्यावी पुरुषों के संग का त्याग – सम्यक्त्व प्राप्ति के ये मुख्य आधार - गुण हैं । सम्यक्त्व से विहीन- – सम्यक्त्व के बिना चारित्र नहीं होता, सम्यक्त्व के होने से Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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