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तत्त्व : आचार : कथानुयोग]
तत्त्व
३१ "भिक्षुओ! चक्रवर्ती को चार द्वीपों का आधिपत्य, स्वामित्व प्राप्त होता है तथा आर्य श्रावक को ये चार धर्म प्रतिलब्ध होते हैं, स्वायत्त होते हैं। यदि दोनों की तुलना करें तो चार द्वीपों का प्रतिलाभ, अधिकार इन चार धर्मों की एक कला के तुल्य भी नहीं है।"
भगवान् तथागत श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवन नामक उद्यान में विहरणशील थे। उन्होंने भिक्षुओं को संबोधित कर कहा--"भिक्षुओ ! चार देवपद-श्रद्धास्थान, उन प्राणियों के लिए, जो अविशुद्ध हैं-आभ्यन्तर शुद्धिव जित हैं, विशोधन के हेतु हैं । जो अस्वच्छ हैं—अनुज्जवल हैं, जीवन की निर्मलता से विरहित हैं, उनके लिए ये स्वच्छता, उज्ज्वलता किंवा निर्मलता के हेतु हैं।
वे चार देव-पद इस प्रकार हैं-~बुद्ध के प्रति दृढ़ श्रद्धायुक्त होना। धर्म के प्रति दढ श्रद्धायक्त होना। संघ के प्रति दढ श्रद्धायक्त होना। शोभन, उत्तम शील सहित होना।
सम्यक-दृष्टि
निःसन्देह जीवन में ज्ञान की महती उपयोगिता है । ज्ञान को आभ्यन्तर चक्षु कहा गया है, किन्तु, तब तक जीवन में ज्ञान की चरितार्थता फलित नहीं होती, जब तक सत्य-परक श्रद्धा उसके साथ नही जुड़ती, वह स विश्वास-संपृक्त नहीं होता। सत्-श्रद्धा से युक्त ज्ञान की आभा जीवन में सत्य की एक ऐसी अमिट लो जलाती है, जिसके आलोक में व्यक्ति उन्नति तथा अम्भुदय-पथ की ओर अविचल भाव से गतिशील रह सकता है। उसे सदुद्यम या सयपराक्रम कहा जाता है, जिसका लक्ष्य जीवन का चरम साध्य निर्वाण है। सत् श्रद्धाशून्य ज्ञान एवं कर्म जानने और करने में सक्षम तो होते हैं, उन दिशाओं में खूब आगे भी बढ़ सकते हैं, किन्तु, वह सब जीवन के सच्चे विकास और उत्थान की दृष्टि से निरूद्दिष्ट होता है। घोर कान्तार में बिना राह पकड़े आगे बढ़ते उस पथिक के प्रयत्न से वह तुलनीय है, जिसका मात्र भटकने के अतिरिक्त कोई लक्ष्य नहीं होता।
भारतीय दर्शनों में श्रद्धा या विश्वास का बड़ा महत्त्व स्वीकार किया गया है । जैनदर्शन में इसे सम्यक्-दृष्टि, सम्यक्-दर्शन या सम्यक्त्व कहा गया है, जिसके बिना ज्ञान-अज्ञान शब्द द्वारा अभिहित हुआ है । सम्यक्-दृष्टि साधना के परिप्रेक्ष्य में अत्यन्त आवश्यक है। बौद्ध-परंपरा में भी इस अर्थ में विशेषतः सम्यक्-दृष्टि शब्द का व्यवहार हुआ है तथा तात्पर्य की दष्टि से भी दोनों में बहुत सामीप्य परिदृश्यमान है। हां, इतना अवश्य है, जैन-वाङ्मय में यह तत्त्व अत्यन्त विस्तार से विविध रूपों में व्याख्यात हुआ है, जो भारतीय तात्त्विक चिन्तनधारा के बहुमुखी विकास का द्योतक है।
___ जीव, अजीव, बन्ध पुण्य पाप, आस्रव, सम्वर, निर्जरा तथा मोक्ष—इनके यथार्थ स्वरूप के सम्बन्ध में अन्तःकरण में श्रद्धा रखना, इनके प्रति आस्थावान् होना सम्यक्त्वसम्यक्-दृष्टि है, ऐसा सर्वज्ञों द्वारा व्याख्यात हुआ है।
१. संयुत्त निकाय, दूसरा भाग, राजसुत्त ५३.१.१ २. संयुक्त निकाय, दूसरा भाग, पढम देवपद सुत्त ५३.४.४
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