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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३
गाथापति आनन्द की अभ्यर्थना सुनकर भगवान् ने कहा--"देवानुप्रिय ! जैसा करने से तुम्हें सुख मिले-शान्ति प्राप्त हो, वैसा ही करो, पर उसमें अपनी श्रद्धा और विश्वास को क्रियान्वित करने में जरा भी विलम्ब मत करो।"१
भगवान बुद्ध श्रावस्ती के अन्तर्गत जेतवन नामक उद्यान में विहरणशील थे। उन्होंने भिक्षुओं को संबोधित कर कहा-"भिक्षुओ ! मान लें, एक चक्रवर्ती राजा है। चारों द्वीपों पर उसका राज्य है, आधिपत्य है । वह अत्यन्त वैभवशाली है। मृत्यु के उपरान्त त्रायस्त्रिंश देवों के मध्य स्वर्ग में उत्पन्न हो जाए। वहाँ नन्दन वन में देवांगनाओं से संपरिवृत होकर रूप, रस, शब्द, गन्ध, स्पर्शमूलक पाँच प्रकार के दिव्य काम-भोगों का-वैषयिक सुखों का उपभोग करे। यह सब संभव है, किन्तु, यदि उसने चार धर्म-श्रद्धा-स्थान स्वीकार नहीं किये तो वह नारक, तिरश्चीन तथा प्रेत-गति में जाने से छूट नहीं सकता। उसे नारकीय दुर्गति-यातना झेलनी ही होती है।
"भिक्षुओ ! मान लें, एक आर्यश्रावक भिक्षा से प्राप्त भोजन द्वारा जीवन चलाए, फटे-पुराने चिथड़े पहन कर निर्वाह करे । पर, यदि वह चार धर्मों-श्रद्धा-स्थानों को स्वीकार किये है तो वह नरक-गति में नहीं जाता, पशु-पक्षियों में नहीं जन्मता, प्रेत-योनि में उत्पन्न नहीं होता।
"वे चार धर्म इस प्रकार हैं-भिक्षुओ ! अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध, विद्याचरणयुक्तज्ञान एवं चारित्र्य से युक्त, सुगत-उत्तम गति प्राप्त, लोकविद--लोकवेत्ता, अनुत्तरसर्वातिशायी, सारथि जैसे अश्वों का नियामक होता है, वैसे ही मनुष्यों के नियामक, अनशासक, देवों तथा मानवों के गुरु भगवान् बुद्ध के प्रति दृढ़ श्रद्धा से युक्त होना।
"धर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धा से युक्त होना । भगवान् तथागत का धर्म स्वाख्यातसमीचीन रूप में प्रतिपादित एवं व्याख्यात है, सांदृष्टिक है- उसका फल साक्षात् दृश्यमान. अनभयमान है। वह अकालिक है--बिना लम्ब समय लिये फलप्रद है, एहिपस्सिक है—जिसकी सत्यता लोगों को यहीं दिखलाई जा सकती है। वह परिनिर्वाण की ओर ले जाता है । ज्ञानी जनों द्वारा अन्तर्मन्थन कर वह स्वयं समझने योग्य है।
"संघ के प्रति दृढ़ आस्था से युक्त होना। भगवान् तथागत का श्रावक संघभिक्षुओं तथा उपासकों का संघ सन्मार्ग पर उद्यत है । सरल-सीधे पथ पर अवस्थित है,
नमय पथ पर टिका है, सत्य-पथ पर आधूत है। वह स्वागत, सम्मान, अर्चन एवं नमन करने योग्य है । वह अलौकिक-अद्भुत पुण्यमय क्षेत्र--स्थान है।
"उत्तम शीलमय आचार से युक्त होना । वह शीलाचरण अखण्ड–खण्डरहित. सततसंलग्नतामय, अभग्न-मंग रहित, अछिद्र-छिद्ररहित, दोषरहित, निर्मल-मल या कालिमा रहित, निर्बाध-बाधारहित, विघ्नरहित, ज्ञानी जनों द्वारा प्रशंसित, अमिश्रितमिश्रणरहित, अशीलजनित दोष से असंयुक्त तथा समाधि साधने हेतु किये जाते प्रयत्न एवं अभ्यास के अनुकूल है। "भिक्षुओ ! आर्य श्रावक इन चार धर्मों को स्वीकार किये होता है।
१. उपासकदशांग सूत्र १.१२
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