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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
तत्त्व
२६ वैचारिक व्यायाम चलता रहता है, जो यथार्थ की भाषा में अनर्थक कहा जाए तो कोई अतिरंजन नहीं होगा। श्रमण-संस्कृति में साधक के लिए श्रद्धा पर बड़ा जोर दिया गया है। आहत तथा सौगत-दोनों ही परंपराएं उसे बहुत दुर्लभ, किन्तु, परम आवश्यक मानती हैं।
संसार में इन चार परम अंगों परप-प्रमुख तत्त्वों का प्राप्त होना दुर्लभ हैमनुष्यत्व-मनुष्य-जीवन, श्रुति-धर्म-श्रमण, श्रद्धा-धर्म में आस्था तथा संयम में पराक्रम-संयताचरण में सोत्साह सक्रियता।'
कदाचित् धर्म-श्रवण का अवसर प्राप्त हो जाए, किन्तु, श्रद्धा प्राप्त होना परम दुर्लभ है। श्रद्धा के अभाव में न्यायानुमोदित-ज्ञान, दर्शन एवं चारित्रमूलक मोक्षोपयोगी का श्रवण कर, उधर उन्मुख होकर भी लोग उससे भ्रष्ट-निपतित हो जाते हैं।
मनुष्य-जीवन प्राप्त कर जो धर्म का श्रवण करता है, धर्मानुरूप पराक्रम प्राप्त कर उधर समुद्यत होता है, वह कर्म-रज को धुन डालता है--विनष्ट कर देता है।
भगवान् महावीर ने कहा-“गौतम ! धर्म सुनने का अवसर प्राप्त हो जाए, यह संभव है, किन्तु, श्रद्धा प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है; क्योंकि इस जगत् में मिथ्यात्व निसेवीअसम्यक् निष्ठा से अभिभूत बहुत लोग हैं; अतः गौतम क्षणभर भी प्रमाद मत करो।"४
गाथापति आनन्द ने धर्म-परिषद् में भगवान महावीर की धर्म-देशना सुनी । वह बहुत हर्षित एवं परितुष्ट हुआ। उसे चित्त में आनन्द और प्रसन्नता का अनुभव हुआ। उसके मानसिक भावों में सौम्यता का संचार हुआ। हर्षातिरेक से उसका हृदय प्रफुल्लित हो गया। वह उठा । उसने श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, उन्हें वन्दन किया, नमन किया।
आनन्द बोला-"निर्ग्रन्थ-प्रवचन में मुझे श्रद्धा उत्पन्न हुई है, प्रतीति हुई है--जिन तत्त्वों का आपने निरूपण किया, उनके प्रति मेरे मन में विश्वास उदित हुआ है । मुझ में रुचि जागी है। वस्तु-सत्य यही है, जो आप बतलाते हैं । यही अवितथ–तथ्य है। भगवान् ! यह मेरे लिए इच्छित है-अभीष्ट है, इच्छित-प्रतीच्छित है—पुनः-पुनः अभीष्ट है--स्वीकरणीय है, ग्राह्य है।।
___ "भगवन् ! आपकी देशना को यथार्थ मानकर, स्वीकार कर अनेक मांडलिक राजा, ईश्वर-ऐश्वर्यशाली पुरुष, तलवर-राज सम्मानित, लोक सम्मानित पुरुष माडंबिक-- भूमिपति, कौटुम्बिक-विशाल परिवारों के स्वामी, इभ्य-संपत्तिशाली पुरुष, श्रेष्ठीवैभव तथा शालीनता के कारण प्रतिष्ठाप्राप्त सेठ, सेनानायक एवं सार्थवाह-व्यापारीसमूह के साथ देशदेशान्तर में पर्यटनशील बड़े व्यापारी आपके पास मुण्डित हुए, गृहस्थजीवन का परित्याग कर प्रवजित हुए-दीक्षित हुए। मैं चाहता हूँ, मैं भी वैसा करूं, किन्तु, मैं अपने में वैसा सामर्थ्य नहीं पाता; अतः मैं आपके पास गृही के बारह व्रत-पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाबत स्वीकार करना चाहता हूँ।"
१. उत्तराध्ययन सूत्र ३.१
" ३.६ " ३.११ " १०.१६
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