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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३ संलग्न आत्मा अपना शत्रु है तथा सुप्रस्थित- सत्यवृत्तियों में संलग्न आत्मा अपना मित्र है।"
यह सब सुनकर राजा श्रद्धाविभोर हो गया, मुनि के चरणों में झुक गया।
आत्मा ही आत्मा का नाथ है । अपने ही अपना स्वामी है। अपना नाथ और कौन हो सकता है ? आत्म का—अपने आपका अपने द्वारा भलीभाँति दमन कर लेने से मनुष्य दुर्लभ-कठिनाई से प्राप्त होने योग्य नाथ को-अपने आपको सही रूप में प्राप्त कर लेता है।
___ अपने से उत्पन्न, अपने से संभूत, अपने द्वारा कृत—किया गया पाप वैसा करने वाले दुर्बुद्धियुक्त मनुष्य को पाषाणमय वज्ररत्न की चोट की ज्यों मथित-पीडित, उद्वेलित करता रहता है।
मालुवा लता द्वारा आवेष्टित वृक्ष के सदृश जिसका दुःशील विस्तीर्ण है-बहुत फैला हुआ है, वह अपने को वैसा ही बना लेता है, जैसा उसके शत्रु चाहते हैं। मालुवा लता जब वर्षा होती है, तब पानी से भीगकर बहुत भारी हो जाती है, जिस वृक्ष को आवेष्टित किये रहती है, अपने भार से उसे तोड़ गिराती है। उसी प्रकार विस्तीर्ण दुःशील आत्मा के लिएअपने लिए कष्टकर होता है ।
आत्मा द्वारा अपने द्वारा किया हुआ पाप अपने को संक्लेशयुक्त-कष्टयुक्त अथवा मालिन्ययुक्त बनाता है। यदि आत्मा द्वारा अपने द्वारा पाप न करे तो आत्मा स्वयं विशुद्ध-निष्पाप, निर्मल रहती है। प्रत्येक व्यक्ति की शुद्धि, अशुद्धि अपनी-अपनी है-प्रत्येक स्वयं अपने को शुद्ध या अशुद्ध बनाता है। दूसरा किसी को विशोषित-विशुद्धियुक्त नहीं कर सकता।
जैसा कर्म, वैसा फल
___ जैन-दर्शन एवं बौद्ध-दर्शन कर्मवादी दर्शन हैं। उन्नति, अवनति, उत्कर्ष, अपकर्ष
१. अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली।
अप्पा कामदहा धंण, अप्पा मे नंदणं वणं ।। अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तम मित्तं च, दुप्पट्टियसुपट्ठिओ ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र २०.३६,३७ २. अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परो सिया।
अत्तना' व सुदन्तेन नाथं लभति दुल्लभं । अत्तना व कतं पापे, अत्तजं अत्तसम्भवं । अभिमन्थति दुम्मेघ, वरिरं' व' स्ममयं मणि ॥ यस्सच्चन्त दुस्सील्यं, मालुवा सालमियोततं । करोति सो तथत्तानं. यथा'नं इच्छाती दिसो॥ अत्तना व कतं पापं, अत्तना संकिलिस्सति । अत्तना अकतं पापं, अत्तना' व विसुज्झति। सुद्धि-असुद्धिपच्चतं, नो अझ विसोधये ।।
-धम्मपद १२, ४-६, ६
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