SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] तत्त्व २७ मनुष्य के अपने कर्मों पर आश्रित है। उत्तम कर्मों द्वारा वह उन्नत होता है, अधम कर्मों द्वारा अवनत होता है। जिस जीव ने पूर्व भव में जिस प्रकार के कर्म का अर्जन किया-जैसा कर्म बांधा, वही आगे फलित होता है।' मनुष्य कुशल-पुण्य या पाप जैसा भी कर्म करता है, उसे आगे उसी के अनुरूप फल प्राप्त होता है। प्राणी कर्म-सत्य हैं-जैसा कर्म करते हैं, वह (कर्म) वैसे ही सत्य रूप में यथावत् रूप में फलित होता है। पुण्य कर्म तथा पाप कर्म का अपना-अपना-शुभाशुभात्मक फल होता है। यह लोक कर्म द्वारा अनुवर्तित है—कर्मानुरूप गतिमान् है-चलता है । जो प्राणी जैसा बीज-वपन करता है, वह उसी के अनुसार फल प्राप्त करता है । मनुष्य-जीवन को दुर्लभता सब योनियों में मनुष्य-योनि अत्यन्त उत्तम तथा उच्च मानी गई है। यह कर्म-योनि है। इसमें मानव को अपने वर्तमान एवं भविष्य की उज्ज्वलता के लिए सत् कार्य, सात्त्विक पुरुषार्थ करने का अवसर मिलता है, जो अन्य योनियों में प्राप्त नहीं होता; क्योकि देवयोनि अत्यन्त भोग-योनि है तथा नरक-योनि अत्यन्त क्लिष्ट योनि है। तिर्यक्-योनि भी प्राय: कष्ट प्रधान है । इन तीनों ही योनियों में धर्मानुगत पुरुषार्थ साध्य नहीं है। वह केवल मनुष्य-योनि में ही साध्य है। मनुष्य योनि बहुत महत्त्वपूर्ण है, दुर्लभ है। ___मनुष्यत्व--मनुष्य-योनि में जन्म, श्रुति-धर्म का श्रवण, श्रद्धा-उस पर विश्वास, आस्था तथा संयम में पराक्रम-उद्यमशीलता-ये चार परम अंग-उत्तम गुण प्राणी के लिए दुर्लभ हैं।" १. जं जारिसं पुन्वमकासि कम्म, तहेव आगच्छति संपराए । -सूत्रकृतांग १.५.२.२३ २. यं करोति नरो कम्म, कल्याणं यदि पावकं । तस्स तस्सेव दाया दो, यं यं कम्मं पकुव्वति ।। -थेरगाथा १४७ ३. कम्म सच्चा हु पाणिणो। -उत्तराध्ययन सूत्र ७.२० ४. सफले कल्लाण-पावए। -दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र ६ ५. कम्मुणा वत्तितो लोको। -सुत्त निपात ३५.६१ ६. यादिसं वपते बीजं, तादिसं हरते फलं । -संयुक्त निकाय १.११.१० ७. चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमे इह वीरियं ॥ ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy