________________
२४
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३
नाओं से, कर्मों से सर्वथा छूट जाता है, तब वह मुक्त या निर्वाण प्राप्त होता है। कर्म-बन्धन से बँधना तथा बरधन से छूटना व्यक्ति के अपने पुरुषार्थ या पराक्रम पर निर्भर है।
___ बन्धन से प्रमोक्ष-बन्धन से छू कारा पाना तुम्हारे अपने हाथ है----तुम्हारे अपने पुरुषार्थ पर निर्भर है।'
अन्य कोई वैसा नहीं है, जो किसी को मुक्त कर सके--निर्वाण प्राप्त करा सके।
यात्मा: सुख-दुःख का कर्ता - श्रमण-संस्कृति कर्मवाद पर आधत है। जो जैसा करता है, वह वैसा भरता है। सुख, दु:ख आदि का कर्ता आत्मा है। सत्कर्म, पुण्य कार्य करने वाला सुखी होता है, उसके प्रतिकूल अपुण्य-कर्म, पाप-कर्म करने वाला दुःखी होता। अपने सुख-दुःख का उत्तरदायित्व और किसी पर नहीं डाला जा सकता है। आत्मा ही-खुद ही अपने लिए सब कुछ है। सत्य का यह शाश्वत स्वर जैन एवं बौद्ध-वाङ्मय में सम्यक् मुखरित है।
सम्बद्ध घटना
एक समय का प्रसंग है, मगध नरेश श्रेणिक भ्रमण हेतु मण्डीकुक्षि नामक उद्यान में गया । वह उद्यान तरह-तरह के सुन्दर वृक्षों, बेलों और फूलों से सुशोभित था, पक्षियों की कलरव ध्वनि से आपूरित था बड़ा सुहावना था। ऐसा लगता था, मानो नन्दन वन हो ।
राजा ने एक पेड़ के नीचे एक सुकुमार, सुन्दर तरुण को देखा, जो श्रमण-वेश में था, संयम, शील एवं समाधि में रत था, बड़ा हर्षित, उल्लसित लगता था।
यौवनावस्था, रम्य रूप, भव्य आकृति, सुकोमल शरीर, फिर यह त्याग, कठोर संयम का अनुसरण देखकर राजा आश्चर्यचकित हो गया, आदर से नत हो गया। वह उनके पास आया, उनके चरणों में वन्दन-नमन किया। करबद्ध होकर राजा ने उनसे पूछा-'आर्य! आप तरुण हैं, फिर प्रव्रजित हो गये ? यह तो भोग-काल है-संसार के सुख भोगने का समय है । मैं आपके इधर प्रवृत्त होने का कारण जानना चाहता हूं।"
युवा श्रमण ने कहा-'राजन् ! मैं अनाथ हूँ। मेरा कोई नाथ- स्वामी नहीं है। मुझ पर अनुकम्पा करनेवाला कोई सुहृदय-मित्र नहीं है। इसी कारण मैंने श्रमण-जीवन स्वीकार किया।"
राजा को सहसा हँसी आ गई। वह मन-ही-मन कहने लगा-"इतने ऋद्धिशालीयौवन, सौन्दर्य, सौकुमार्य के धनी पुरुष का भी कोई नाथ नहीं, सचमुच बड़े अचरज की बात है।"
१, बंधपमोक्खौ तुज्झमऽज्झत्थमेव ।
-आचारांग सूत्र १.५.२.४ १२. नत्थज्ञो कोचि मोचेता।
-चुल्ल निद्देस २.५.३३
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org