SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ हुमा शस्त्र शस्त्रधारी को मार देता है । मन्त्र द्वारा भली-भांति वश में नहीं किया गया वैताल-प्रेत मन्त्र-प्रयोक्ता को ही समाप्त कर देता है, उसी प्रकार विषयोपपन्नसांसारिक काम-भोगों को परिपूर्ति हेतु गृहीत-धारण किया हुआ, स्वीकार किया हुआ धर्म आत्मा का अपने आप का धर्म करने वाले का हनन करता है-उसका पतन करता है।' जैसे दुर्गहीत-गलत रूप में हाथ द्वारा ग्रहण किया हुआ-पकड़ा हुआ कुश, गृहीत करने वाले के हाथ को ही छेद डालता है, काट देता है, उसी प्रकार दुष्परामृष्ट-दुर्विधि से, दूषित लक्ष्य से गृहीत-स्वीकृत श्रामण्य-संन्यास-भिक्षु-जीवन नरक प्राप्त कराता हैनरक में ले जाता है। जीव जो दुःख भोगता है, वह उसका स्वकृत है, परकृत नहीं। दुःख किसके द्वारा किया गया है ? आत्मा के द्वारा। किसके वश होकर किया गया है ?. प्रमादवश किया गया है। आत्म-दण्ड से-अपने खुद के दोष से ही भय पैदा होता है। अपने कर्मों के फलस्वरूप ही मनुष्य विपर्यास-प्रतिकूल-बेदनीय-दुःख प्राप्त १. विसं तु पीयं जह कालकूडं हणाइ सत्थं जह कुग्गहीयं । ऐसो वि धम्मो विसओववन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवन्नो ।। -उत्तराध्ययन सूत्र २०.४४ २. कुसो यथा दुग्गहीतो, हत्थमेवाउकन्तति । सामञ्च दुप्परामठे, निरयायु उपकड्ढति ॥ -धम्मपद २२, निरय वग्गो ६ ३. जीवेण सयं कडे दुक्खं वेदेइ, न परकडे । -भगवती सूत्र १.२ ४. दुक्खे केण कडे? अत्तकडे। केण? पमायेण। -भगवती सूत्र १७.५ ५. अत्तदण्डा मयं जातं। -सुत्तनिपात ४.५३.१ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy