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तत्त्व : शाचार : कथानुयोग ]
तत्त्ब
प्रकार का मानसिक धर्माचरण है।
"वह सम्यक् दृष्टि-सत्य-आस्थायुक्त, यथार्थ धारणायुक्त होता है। दान है, यज्ञ है, हवन है, शुभ-अशुभ का-पुण्य-पाप का फल है, लोक है, परलोक है, माता-पिता हैं, औपपातिक सत्त्व-उपपातोपन्न-अयोनिज देव हैं, सत्य-द्रष्टा, सन्मार्ग पर चलनेवाले ऐसे श्रमण-ब्राह्मण हैं, जो स्वयं सत्य का साक्षात्कार कर चुके हों, औरों को समझाने में समर्थ हों--वह ऐसा विश्वास करता है। यह तीसरे प्रकार का मानसिक धर्माचरण है।
"जो कायिक, वाचिक तथा मानसिक धर्माचरण करता है, वह देह त्यागने के पश्चात् सुगति में जाता है, स्वर्ग में जन्म लेता है।
"गृहपतियो! यदि कोई धर्मचारी-धर्म का भली-भांति आचरण करनेवाला यों इच्छा करे कि मैं देह-त्याग करने पश्चात् अत्यन्त धनवान् क्षत्रिय के रूप में जन्म लूं तो उसके धर्माचरण के फलस्वरूप वैसा होता है। यदि कोई धर्मचारी यह चाहे कि मैं देह-त्याग करने के पश्चात् अत्यन्त धनी ब्राह्मण के रूप में उत्पन्न होऊँ तो उसके धर्माचरण के फलस्वरूप वैसा होता है। यदि कोई धर्मचारी ऐसी आकांक्षा करे कि मैं देह-त्याग करने के पश्चात् अत्यन्त धनी गृहपति-वैश्य के रूप में जन्म लं, तो उसके धर्माचरण के फलस्वरूप वैसा होता है।
"गृहपतियो ! यदि धर्मचारी यह अभिलाषा करे कि बह देह छोड़ने के बाद चातुर्महा-राजिक देवता त्रायस्त्रिश देवता आदि के रूप में उत्पन्न हो, तो उसके धर्माचरण के फलस्वरूप वैसा होता है।
गृहपतियो ! यदि धर्मचारी चाहे-ऐसी भावना करे कि मैं इसी जन्म में मानवक्षय द्वारा–चैतसिक मलों के नाश द्वारा चेतोविमुक्ति तथा प्रज्ञाविमुक्ति को स्वायत्त कर, उनका साक्षात्कार कर, उनसे अनुभावित हो विहरण करूं तो उसके धर्माचरण के फलस्वरूप वैसा होता है।"
शालाग्राम-निवासी ब्राह्मणों ने यह सुनकर भगवान् से कहा—“गौतम ! आश्चर्य है, आपने इतना सुन्दर मार्ग हमें दिखाया, जैसे कोई उलटे को सीधा कर दे, वैसे ही आप हमें सीधे मार्ग पर सत्पथ पर ले आए। हम भगवान् गौतम की शरण स्वीकार करते हैं। गौतम ! आज से हमें अपने शरणागत, करबद्ध, उपासकों के रूप में स्वीकार करें।""
कष्टों का सर्जक व्यक्ति स्वयं
___ वैषयिक सुखों की भूलभुलैया में पड़कर व्यक्ति स्वयं अपने लिए दुःखों का जाल बुनता है। जिन्हें वह सुख समझता है, परिणाम में वे अत्यधिक कष्टप्रद सिद्ध होते हैं।
दर असल दुःख, कष्ट, भीति- इन सबका सर्जक या कर्ता व्यक्ति स्वयं है। उसके अपने कर्मों की ही फल-निष्पत्ति दुःखरूप में परिणत होती है । जैसे, कालकूट-हलाहल विष, जो पीता है, उसे मार डालता है। कृगृहीत---अविधि वत् या विपरीत रूप में धारण किया
१ मज्झिम निकाय १.५.१ सालेय्यसुत्त
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