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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] परिशिष्ट - २ : बौद्ध पारिभाषिक शब्द-कोश ७५३ ( दूसरे मतावलम्बी) चालीस कल्पों तक, प्रकृति - श्रावक (अग्र श्रावक और महाश्रावक को छोड़कर), सौ या हजार कल्पों तक, महाश्रावक (अस्सी) लाख कल्पों तक, अग्र श्रावक (दो) एक असंख्य लाख कल्पों को प्रत्येक बुद्ध दो असंख्य लाख कल्पों को और बुद्ध बिना परिच्छेद ही पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करते हैं । ५. च्युतोत्पादन - ज्ञान - विशुद्ध अमानुष दिव्य चक्षु से मरते, उत्पन्न होते, हीन अवस्था में आये, अच्छी अवस्था में आये, अच्छे वर्ण वाले, बुरे वर्ण वाले, अच्छी गति को प्राप्त बुरी गति को प्राप्त, अपने-अपने कर्मों के अनुसार अवस्था को प्राप्त, प्राणियों को जान लेता है। वे प्राणी शरीर से दुराचरण, वचन से दुराचरण और मन से दुराचरण करते हुए, साधु पुरुषों की निन्दा करते थे, मिथ्यादृष्टि रखते थे, मिथ्यादृष्टि वाले काम करते थे । (अब) वह मरने के बाद नरक और दुर्गति को प्राप्त हुए हैं और वह ( दूसरे ) प्राणी शरीर, वचन और से सदाचार करते, साधुजनों की प्रशंसा करते, सम्यक् दृष्टि वाले सम्यग् - दृष्टि के अनुकूल आचरण करते थे, अब अच्छी गति और स्वर्ग को प्राप्त हुए हैं- इस तरह शुद्ध अलौकिक दिव्य चक्षु से ..... जान लेता है । ६. आश्रव-क्षय— आश्रव-क्षय से आश्रव-रहित चित्त-विमुक्ति, प्रज्ञा- विमुक्ति को इसी जन्म में स्वयं जान कर साक्षात्कार कर प्राप्त कर विहरता है । अर्हत् - भिक्षु रूपराग, अरूपराग, मान, औद्धत्य और अविद्या के बन्धन को काट गिराता है और अर्हत हो जाता है । उसके सभी क्लेश दूर हो जाते हैं और सभी आश्रव क्षीण हो जाते हैं । शरीरपात के अनन्तर उसका आवागमन सदा के लिए समाप्त हो जाता है, जीवनस्रोत सदा के लिए सूख जाता है और दुःख का अन्त हो जाता है । वह जीबन मुक्त व परम-पद की अवस्था होती है । अविचीर्णन किया हुआ । अवितर्क- विचार - समाधि - जो वितर्क मात्र में ही दोष को देख, विचार में ( दोष को ) न देख केवल वितर्क का प्रहाण मात्र चाहता हुआ प्रथम ध्यान को लांघता है, वह अवितर्कविचार मात्र समाधि को पाता है । चार ध्यानों में द्वितीय, तृतीय व चतुर्थ ध्यानों की एकाग्रता अवितर्क-विचार-समाधि है। अविची नरक-आठ महान नरकों में से सबसे नीचे का नरक; जहाँ सौ योजन के घंरे में प्रचण्ड आग धधकती रहती है । अव्याकृत - अनिर्वचनीय । अष्टाङ्गिक मार्ग - १. सम्यक् दृष्टि, २. सम्यक् संकल्प, ३ . सम्यक् वचन, ४. सम्यक् कर्मान्त, ५. सम्यक् आजीव, ६. सम्यक् व्यायाम, ७. सम्यक् स्मृति और प सम्यक् समाधि । आकाशानन्त्यायतन - चार अरूप ब्रह्मलोक में से तीसरा ? आकिंचन्यायतन - चार अरूप ब्रह्मलोक में से तीसरा ? आचार्यकधर्म । आजानीय - उत्तम जाति का । आदेशना प्रातिहार्य - व्याख्या - चमत्कार | इसके अनुसार दूसरे के मानसिक संकल्पों को अपने चित्त से जान कर प्रकट किया जा सकता है । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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