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७५२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३ बनाना),ज्ञान-विस्फार ऋद्धि, समाधि-विस्फार ऋद्धि (ज्ञान और समाधि की उत्पत्ति से पहले, पीछे उसी क्षण या ज्ञान के या समाधि के अनुभव से उत्पन्न हुई विशेष शक्ति), आर्य कर्म ऋद्धि (प्रतिकूल आदि संज्ञी होकर विहार करना), विपाकज ऋद्धि (पक्षो आदि का आकाश में जाना आदि), पुण्यवान् की ऋद्धि (चक्रवर्ती आदि का आकाश से जाना), विद्यामय ऋद्धि (विद्याधर आदि का आकाश से जाना),सिद्ध होने के अर्थ में ऋद्धि (उस-उस काम में सम्यक-प्रयोग से उस-उस काम का सिद्ध होना)-ये दस ऋद्धियां हैं, इसको प्राप्त करके भिक्षु एक होकर बहुत होता है, बहुत होकर एक होता है, प्रकट होता है, अन्तर्धान होता है। तिरःकुड्यअन्तर्धान ही दीवार के आर-पार जाता है, तिरःप्रकार-अन्तर्धान होप्राकार के पार जाता है, तिर:पर्वत --पांशु या पत्थर के पर्व के पार जाता है, आकाश में होने के समान बिना टकराये जाता है, जल की भाँति पृथ्वी में गोता लगाता है, पृथ्वी की भाँति जल पर चलता है, पांखों वाले पक्षी की तरह आकाश में पालथी मारे जाता है, महातेजस्वी सूर्य और चन्द्र को भी हाथ से छूता है और मलता है, ब्रह्मलोकों को भी अपने शरीर के बल से वश में करता है, दूर को पास करता है, पास को दूर करता है. थोडे को बहत करता है, बहत को थोडा करता है, मधर को अमधर करता है अमधर मधर आदि भी. जो-जो चाहता है, ऋद्धिमान को सब सिद्ध होता है। यही स्थिति अवलोक को बढ़ा कर उस ब्रह्मा के रूप को देखता है और यही स्थिति उनके शब्द को सुनता है तथा चित्त को भली प्रकार जानता है। शरीर के तौर पर चित्त को परिणाम करता है और चित के तौर पर शरीर को परिणत करता है। २. दिव्य-श्रोत्र-धातु-विशुद्ध अमानुष दिव्य श्रोत्र धातु अर्थात् देवताओं के समान कर्णेन्द्रिय से दूर व समीप के देवों और मनुष्यों के शब्दों सुन सकता है। इस अभिज्ञ को प्राप्त करने वाला भिक्षु यदि ब्रह्मलोक तक भी शंख, भेरी, नगाड़ी आदि के शब्द में एक शोर होता है, तो भी अलग करके व्यवस्थापन की इच्छा होने पर यह शंख
का शब्द है; 'भेरी का शब्द है', ऐसा व्यवस्थापन कर सकता है । ३. चेतोपर्य-ज्ञान-दूसरे प्राणियों के चित्त को अपने चित्त द्वारा जानता है। सराग चित्त होने पर सराग-चित्त है, ऐसा जानता हैं । वीताराग चित्त, सद्वेष-चित्त, वीत द्वेष चित्त, समोह-चित्त, वीतमोह-चित्त, विक्षिप्त-चित्त संक्षिप्त-चित्त, महद् गत-चित्त, अहमद्गत-चित्त, स-उत्तर-चित्त, अनुत्तर-चित्त, समाहित (एकाग्र) चित्त,
असमाहित-चित्त, विमुक्त-चित्त और अमुक्त-चित्त होने पर वैसा जानता है । ४. पूर्वे निवानुस्मृति-ज्ञान-अनेक प्रकार के पूर्व-जन्मों का अनुस्मरण करता है। एक
जन्म को भी, दो जन्म को भी यावत् सौ, हजार, सौ हजार....''अनेक संवतं-कल्पों को भी अनेक विवर्त-कल्पों को भी, अनेक संवर्त-विवर्त-कल्पों को भी स्मरण करता है। तब मैं अमुक स्थान अर्थात् भव, योनि, गति, विज्ञान की स्थिति, सत्त्वों के रहने के स्थान या सत्त्व समूह में था। इस नाम का, इस गोत्र का, इस आयु का, इस आहार का, अमुक प्रकार के सुख-दुःख का अनुभव करने वाला व इतनी आयु वाला था। वहाँ सेच्युत होकर अमुक्त स्थान में उत्पन्न हुआ। वहाँ नाम आदि.... 'था। वहाँ से च्युत हो अब यहां अमुक क्षत्रिय या ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ हूँ। तैथिक
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