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अकुशल धर्म-- सदैव बुरा फल उत्पन्न करने वाले धर्म पाप कर्म । अग्निशाला-पानी गर्म करने का घर । अधिकरण समय - उत्पन्न कलह की शान्ति के लिए बतलाये गए आचार का लंघन भी
दोष है। अधिष्ठान पारमिता-जिस प्रकार पर्वत सब दिशाओं से प्रचण्ड हवा के झोके लगने पर भी
न कांपता है, न हिलता है और अपने स्थान पर स्थिर रहता है, उसी प्रकार अपने
अधिष्ठान (दृढ़ निश्चय) में सर्वतोभावेन सुस्थिर रहना। अध्वनिक- चिरस्थायी। अनवनव-विपाक-रहित। अनगामी-फिर जन्म व लेने वाला। काम-राग (इन्द्रिय-लिप्सा) और प्रतिघ ( दूसरे के
प्रति अनिष्ट करने की भावना) को सर्वथा समाप्त कर योगावचर भिक्षु अनागामी हो
जाता है । यहाँ से मरकर ब्रह्मलोक में पैदा होता है और वहीं से अर्हत हो जाता है। अनाश्वासिक-मन को सन्तोष न देने वाला। अनियत--भिक्षु किसी श्रद्धालु उपासिका के साथ एकान्त में पाराजिक, संघादिसेस और
पाचित्तिय - तीन दोषों में से किसी एक दोष के लिए उसके समक्ष प्रस्ताव रखता है। संघ के समक्ष सारा घटना-वृत प्रकट होने पर दोषी भिक्षु का, श्रद्धालु उपासिका के कथन पर, दोष का निर्णय किया जाता है और उसे प्रायश्चित करवाया जाता है। वह
अपराध (तीनों) नियत न होने पर अनियत कहा जाता है। अनुप्रशप्ति-सम्बोधन । अनुशासनीयप्रातिहार्य-भिक्षु ऐसा अनुशासन करता है—ऐसा विचारो, ऐसा मत विचारो; ___ मन में ऐसा करो, ऐसा मत करो; इसे छोड़ दो, इसे स्वीकार कर लो। अनुभव-श्रुति। अनश्रावण-ज्ञप्ति करने के अनन्तर संघ से कहना--जिसे स्वीकार हो, वह मौन रहे ; जिसे
स्वीकार न हो, वह अपनी भावना व्यक्त करें। अपायिक-दुर्गति में जाने वाला। आभिजाति-जन्म । अमिजा-दिव्य शक्ति । अभिज्ञा मूलतः दो प्रकार की है-१. लौकिक और २. लोकोत्तर ।
लौकिक अभिज्ञाएँ पाँच और लोकोत्तरअभिज्ञा एक है : १. ऋद्धि विद्ध-अधिष्ठान ऋद्धि (एक होकर बहुत होना, बहुत होकर एक होना), विकुर्वण ऋद्धि (साधारण रूप को छोड़कर कुमार का रूप या नाग का रूप दिखलाना, नाना प्रकार के सेना व्यूहों को दिखलाना आदि), मनोमय ऋद्धि (मनोमय शरीर
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