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________________ ७५४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ आनन्तर्य कर्म-१. मातृ-हत्या, २. पितृ-हत्या, ३. अर्हत्-हत्या, ४. बुद्ध के शरीर से लहू बहा देना और ५. संघ में विग्रह उत्पन्न करना; ये पाँच पाप आनन्तर्य कर्म कहलाते हैं । इनके अनुष्ठान से मनुष्य उस जन्म में कदापि क्षीणाश्रव होकर मुक्त नहीं हो सकता। आनुपूर्वी कथा-क्रमानुसार कही जाने वाली कथा। इसके अनुसार दान, शील व स्वर्ग की कथा कही जाती है। भोगों के दुष्परिणाम बतलाये जाते हैं तथा क्लेश-स्याग और निष्कामता का माहात्म्य प्रकाशित किया जाता है। आपत्ति-दोष-दण्ड । आर्यसत्य--१. दुःख, २. दुःख-समुदाय -दुःख का कारण, ३. दुःख निरोध-दुःख का नाश ४. दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा-दुःख-नाश का उपाय । आस्रव-चित्त-मल । ये चार हैं-काम, भव, दृष्टि और अविद्या । आस्ससन्त-आश्वासन प्रद। इन्द्रकील-शत्रु के आक्रमण को रोकने के लिए नगर द्वार के समीप दृढ़ व विशाल प्रस्तर या लौह स्तम्म। ईत्झाना-बर्मी संवत् । उत्तर कुरु-चार द्वीपों में एक द्वीप । उत्तर-मनुष्य-धर्म-दिव्य शक्ति । उदान-आनन्दोल्लास से सन्तों के मुंह से निकली हुई वाक्यावलि । उन्नीस विद्याएँ-१. श्रुति, २. स्मृति, ३. सांख्य, ४. योग, ५. न्या य, ६. वैशेषिक ७. गणित, ८. संगीत, ६. वैद्यक, १०. चारों वेद, ११. सभी पुराण, १२. इतिहास, १३. ज्योतिष, १४. मंत्र-विद्या, १५. तर्क, १६. तंत्र, १७. युद्ध विद्या, १८. छन्द और १६. सामुद्रिक । उपपारमिता-साधन में दृढ़ संकल्प होकर बाह्य वस्तुओं का परित्याग करना । उपपार मिता दस होती हैं। उपशम संवर्तनिक-शान्ति प्रापक । उपसम्पदा-श्रामणेर द्वारा धर्म को अच्छी तरह समझ लिये जाने पर उपसम्पदा-संस्कार किया जाता है । संघ के एकत्रित होने पर उपसम्पदा-प्रार्थी श्रामणेर वहाँ उपस्थित होता है। संघ के बीच उसकी परीक्षा होती है। उत्तीर्ण होने पर उसे संघ में सम्मिलित कर लिया जाता है । तब से वह भिक्षु कहलाता है और उसे प्रातिमोक्ष के अन्तर्गत दो सौ सत्ताईस नियमों का पालन करना होता है। बीस वर्ष की आयु के बाद ही किसी की उपसम्पदा हो सकती है। उपस्थान-शाला-सभा-गृह । उपस्थाक–सहचर सेवक । उपेक्षा-संसार के प्रति अनासक्त-भाव। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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