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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ १. निर्धारिम - जो साधु उपाश्रय में पादोपगमन अनशन करते हैं, मृत्युपरान्त उनका शव संस्कार के लिए उपाश्रय से बाहर लाया जाता है; अतः वह देह त्याग निर्धारिम कहलाता है । निर्धार का तात्पर्य है— बाहर निकालना । ७३६ २. अनिर्धारिम- जो साधु अरण्य में ही पादोपगमन पूर्वक देह त्याग करते हैं, उनका शव संस्कार के लिए कहीं बाहर नहीं ले जाया जाता; वह देह त्याग अनिहरिम कहलाता है पाप - अशुभ कर्म - पुद्गल । उपचार से पाप के हेतु भी पाप कहलाते हैं । पारिणामिकी बुद्धि- दीर्घकालीन अनुभवों आधार पर प्राप्त होने वाली बुद्धि । पार्श्वनाथ - केवल साधु का वेष धारण किये रहना, पर आचार का यथावत् पालन नहीं करना । 2 पार्श्वनाथ - संतानीय- मगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के । पुण्य - शुभ कर्म - पुद्गल । उपचार से जिस निमित्त से पुण्य-बन्ध होता है, वह भी पुण्य कहा जाता है । पौषध (पोवास ) – एक अहोरात्र के लिए चारों प्रकार के आहार और पाप पूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग । प्रज्ञप्ति आदि विद्या - १. प्रज्ञप्ति २. रोहिणी, ३. वज्रश्रृंखला, ४. कुलिशाङ्कुशा, ५. चक्रेश्वरी, ६. नरदत्ता, ७. काली, ८ महाकाली, ६. गौरी, १०. गान्धारी, ११. सर्वास्त्रमहाज्वाला, १२. मानवी, १३. वैरोय्या, १४. अच्छुप्ता, १५. मानसी और १६. महामानसिका — ये सोलह विद्या देवियाँ हैं । प्रतिचोदना – मत से प्रतिकूल वचन । प्रतिसारणा - मत से प्रतिकूल सिद्धान्त का स्मरण । प्रत्याख्यान त्याग करना । प्रत्युपधार - तिरस्कार | प्रथम सप्त अहोरात्र प्रतिमा - साधु द्वारा सात दिन तक चौविहार एकान्तर उपवास ; उत्तान या किसी पार्श्व से शयन या पालथी लगाकर ग्रामादि से बाहर कायोत्सर्ग करना । प्रवचन - प्रभावना - नाना प्रयत्नों से धर्म-शासन की प्रभावना करना । प्रवर्तिनी - आचार्य द्वारा निर्दिष्ट वैयावृत्त्व आदि धार्मिक कार्यों में साध्वी-समाज को प्रवृत्त करने वाली साध्वी — प्रभुत्वा । प्रवृत्त परिहार ( पारिवृत्य परिहार ) - शरीरान्तर प्रवेश । प्रवृत्ति वादुक—- समाचारों को प्राप्त करने वाला विशेष कर्मकर पुरुष । प्राण - द्वीन्द्रिय (लट, अलसिया आदि), त्रीन्द्रिय (जूं, चींटी आदि) और चतुरिन्द्रिय (टीड, पतंग, भ्रमर आदि) प्राणी । जीव का पर्यायवाची शब्द । प्राणत - दसवाँ स्वर्ग । देखें, देव । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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