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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] परिशिष्ट १ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश ७३५ ४. पंक प्रभा-रक्त, मांस और पीब जैसे कीचड़ से व्याप्त । ५. धूम्र प्रभा-राई, मिर्च के धुएँ से भी अधिक खारे धुएँ से परिपूर्ण। ६. तमः प्रभा-घोर अन्धकार से परिपूर्ण।। ७. महातमः प्रमा- घोरातिघोर अन्धकार से परिपूर्ण। नागेन्द्र-भुवनपति देवों की एक निकाय का स्वामी । देखें, देव । निकाचित-जिन कर्मों का फल बन्ध के अनुसार निश्चित ही भोगा जाता है। यह सब __ करणों के अयोग्य की अवस्था है। नित्यपिण्ड-प्रतिदिन एक घर से आहार लेना। निदान-देखें, शल्य के अन्तर्गत निदान शल्य । निग्रंथ प्रवचन-तीर्थङ्कर प्रणीत जैन-आगम । निर्जरा-तपस्या के द्वारा कर्म-मल के उच्छेद से होने वाली आत्म-उज्ज्वलता। निर्हारिम-देखें, पादोपगमन । निह्नव-तीर्थङ्करों द्वारा प्रणीत सिद्धान्तों का अपलापक। नरयिक भाव-नरक की पर्याय । पंचमुष्टिक लुंचन- मस्तक को पाँच भागों में विभक्त कर बालों का लुंचन करना। पांच विण्य -केवलियों के आहार ग्रहण करने के समय प्रकट होने वाली पांच विभूतियाँ । १. नाना रत्न, २. वस्त्र, ३. गन्धोदक, ४. फूलों की वर्षा और ५. देवताओं द्वारा दिव्य घोष। पण्डित मरण-सर्वव्रत दशा में समाधि मरण। पदानुसारी लब्धि-तपस्या-विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति। इसके अनुसार आदि, मध्य या अन्त के किसी एक पद्य की श्रुति या ज्ञप्ति मात्र से समग्र ग्रन्थ का अवबोध हो जाता है। परीषह-साधु-जीवन में विविध प्रकार से होने वाले शारीरिक कष्ट । पर्याय-पदार्थों का बदलता हुआ स्वरूप। पल्योपम-एक दिन से सात दिन की आयु वाले उत्तर कुरु में पैदा हुए योगलिकों के केशों के असंख्य खण्ड कर एक योजन प्रमाण गहरा, लम्बा व चौड़ा कुआँ ठसाठस भरा जाये। वह इतना दबा कर भरा जाये, जिससे अग्नि उसे जला न सके, पानी भीतर घुस न सके और चक्रवर्ती की सारी सेना भी उस पर से गुजर जाये तो भी वह अंश मात्र लचक न खाये। हर सौ वर्ष पश्चात उस कुएँ में एक केश-खण्ड निकाला जाये। जितने समय में वह कुंआ खाली होगा, उतने समय को पल्योपम कहा जाएगा। पादोपगमन-अनशन का वह प्रकार, जिसमें साधु द्वारा दूसरों की सेवाओं का और स्वयं की चेष्टाओं का त्याग कर पादप-वृक्ष की तरह निश्चेष्ट होकर रहना। इसमें चारों आहारों का त्याग आवश्यक है। यह दो प्रकार का है-१. निर्हारिम और २. अनिहोरिम। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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