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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] परिशिष्ट १ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश ७३७ प्रायश्चित्त-साधना में लगे दूषण की विशुद्धि के लिए हृदय से पश्चात्ताप करना। यह दस प्रकार से किया जाता है । १. आलोचना-लगे दोष को गुरु या रत्नाधिक के समक्ष यथावत् निवेदन करना। २. प्रतिक्रमण-सहसा लगे दोषी के लिए साधक द्वारा स्वत: प्रायश्चित करते हुए कहना-मेरा पाप मिथ्या हो। ३. तदुभय-आलोचना और प्रतिक्रमण । ४. विवेक-अनजान में आधाकर्म दोष से युक्त आहार आदि आ जाये तो ज्ञात होते ही उसे उपभोग में न लेकर उसका त्याग कर देना। ५. कायोत्सर्ग-- एकाग्र होकर शरीर की ममता का त्याग। ६. तप-अनशन आदि बाह्य तप। ७. छेद-दीक्षा-पर्याय को कम करना। इस प्रायश्चित्त के अनुसार जितना समय कम किया जाता है, उस अवधि में दीक्षित छोटे साधु दीक्षा पर्याय में उस दोषी साथ से बड़े हो जाते हैं। ८. मूल-पुनर्दीक्षा। ६. अनवस्थाप्य-तप विशेष के पश्चात् पुनर्दीक्षा। १०. पारञ्चिक - संघ-बहिष्कृत साधु द्वारा एक अवधि विशेषातक साधु-वेष परिवर्तित ___ कर जन-जन के बीच अपनी आत्म-निन्दा करना। प्रीतिदान-शुभ संवाद लाने वाले कर्मकर को दिया जाने वाला दान । बन्ध-आत्मा के साथ कर्म-पुद्गलों का घनिष्ठ सम्बन्ध । बलदेव-वासुदेव के ज्येष्ठ विमात बन्धु । प्रत्येक अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल में नौ-नौ होते हैं। इनकी माता चार स्वप्न देखती है। वासुदेव की मृत्यु के बाद दीक्षा लेकर घोर तपस्या आदि के द्वारा आत्म-साधना करते हैं। कुछ मोक्ष जाते हैं और कुछ स्वर्गगामी होते हैं। बादर काय योग-स्थूल कायिक प्रवृत्ति। बादर मन योग-स्थूल मानसिक प्रवृत्ति । बादर वचन योग-स्थूल वाचिल प्रवृत्ति । बाल तपस्वी–अज्ञान पूर्वक तप का अनुष्ठान करने वाला। बालमरण-अज्ञान दशा-अविरत दशा में मृत्यु । बेला-दो दिन का उपवास। ब्रह्मलोक-पाँचवाँ स्वर्ग । देखें, देव। भक्त-प्रत्याख्यान-उपद्रव होने पर या न होने पर भी जीवन-पर्यन्त तीन या चार आहार का त्याग। भद्र प्रतिमा-ध्यानपूर्वक तप करने का एक प्रकार । पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा की ओर मुख कर क्रमशः प्रत्येक दिशा में चार-चार प्रहर तक ध्यान करना। यह प्रतिमा दो दिन की होती है। भवसिद्धिक-मोक्ष-प्राप्ति की योग्यता वाले जीव ! Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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