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________________ तत्व : आचार : कथानुयोग ] परिशिष्ट - १ : जैन पारिभाषिक शब्द कोश ७३१ जो इनको तुष्ट रखता है, उसको यश प्रदान करते हैं। ये दस प्रकार के होते हैं - १. अन्न जृम्भक, २. पान जृम्भक, ३. वस्त्र जृम्भक, ४. गृह जृम्भक, ५. शयन जृम्भक, ६. पुष्प जृम्भक ७. फल जृम्भक, ८. पुष्प फल जृम्भक, ६. विद्या जृम्भक और १०. अव्यक्त जृम्भक । भोजन आदि में अभाव और सद्भाव करना, अल्पता और अधिकता करना, सरसता और नीरसता करना; जृम्भक देवों का कार्य होता है । दीर्घ वैताढ्य, चित्र, विचित्र, यमक, समक और काञ्चन पर्वतों में इनका निवास रहता है और एक त्योपम की स्थिति है । लोकपालों की आज्ञानुसार ये त्रिकाल ( प्रातः मध्याह्न सायं ) जम्बूद्वीप में फेरी लगाते हैं और अन्न, पानी, वस्त्र, सुवर्णादि धातु, मकान, पुष्प, फल, विद्या व सर्वसाधारण वस्तुओं की रक्षा करते हैं। ये व्यन्तर हैं । ज्योतिष्क —— देखें, देव । ज्ञान- सामान्य विशेषात्मक पदार्थ के सामान्य धर्मों को गौण कर केवल विशेष धर्मों को ग्रहण करना । ज्ञानावरणीय कर्मवाला कर्म । तत्त्व-हार्द | तमः प्रभा - देखें नरक । तालपुट विष - ताली बजाने में जितना समय लगता है, उतने ही समय में प्राणनाश करने वाला विष । -आत्मा के ज्ञान गुण ( वस्तु के विशेष अवबोध ) को आच्छादित करने तिर्यक गति - तिर्यञ्च गति । तीर्थङ्कर - तीर्थं का प्रवर्तन करने वाले आप्त पुरुष । तीर्थङ्कर गोत्र नामकर्म - जिस नाम कर्म के उदय से जीव तीर्थङ्कर रूप में उत्पन्न होता है । तीर्थ- - जिससे संसार समुद्र तेरा जा सके । तीर्थङ्करों का उपदेश, उसको धारण करने वाले गणधर व ज्ञान, दर्शन, चारित्र को धारण करने वाले साधु साध्वी, श्रावक तथा श्राविका रूप चतुविध संघ को भी तीर्थ कहा जाता है । तीर्थङ्कर केवल ज्ञान प्राप्त करने के अनन्तर ही उपदेश करते हैं और उससे प्रेरित होकर भव्य जन साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाएँ बनते हैं । तृतीय सप्त अहोरात्र प्रतिमा - साधु द्वारा सात दिन तक चौविहार एकान्तर उपवास ; गोदुहासन, वीरासन या आम्रकुब्जासन ( आम्र फल की तरह वक्राकार स्थिति में बैठना ) से ग्रामादि से बाहर कोयोत्सर्ग करना । तेजोलेश्या - उष्णता प्रधान एक संहारक शक्ति (लब्धि ) विशेष । यह शक्ति विशेष तप से ही प्राप्त की जा सकती है। छह महीने तक निरन्तर छठ छठ तप करे । पारणे में नाखून सहित मुट्ठी भर उड़द के बाकुले और केवल चुल्लू भर पानी ग्रहण करे | आतापना भूमि में सूर्य के सम्मुख ऊर्ध्वमुखी होकर आतापना ले। इस अनुष्ठान के अनन्तर तेजोलेश्या प्राप्त होती है । जब वह अप्रयोगकाल में होती है, 'संक्षिप्त' कहलाती है और प्रयोग- काल में 'विपुल' (विस्तीर्ण) कहलाती है । इस शक्ति के बल पर व्यक्त १. अंग, Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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