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७३० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३ छद्मस्थ-घातीकर्म के उदय को छद्म कहते हैं । इस अवस्था में स्थित आत्मा छद्मस्थ कह
लाती है । जब तक आत्मा को केवल ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, तब तक वह छद्मस्थ
ही कहलाती है। जंघाचरण लब्धि- अष्टम (तेला) तप करने वाले भिक्षु को यह दिव्य शक्ति प्राप्त हो
सकती है । जंघा से सम्बन्धित किसी एक व्यापार से तिर्यक दिशा की एक ही उड़ान में वह तेरहवे रुचकवर द्वीप तक पहुँच सकता है । पुन: लौटता हुआ वह एक कदम आठवें नन्दीश्वर द्वीप पर रख कर दूसरे द्वीप में जम्बूद्वीप के उसी स्थान पर पहुँच सकता है ; जहाँ से कि वह चला था । यदि वह उड़ान ऊर्ध्व दिशा की हो तो एक ही छलांग में वह मेरुपर्वत के पाण्डुक उद्यान तक पहुँच सकता है और लौटते समय एक कदम नन्दन
वन में रख कर दूसरे कदम में जहाँ से चला था, वहीं पहुँच सकता है । जम्बूद्वीप- असंख्य द्वीप और असंख्य समुद्र हैं। प्रत्येक द्वीप को समुद्र और समुद्र को द्वीप घेरे
हए है। जम्बूद्वीप उन सबके मध्य में है। यह पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण एकएक लाख योजन है। इस में सात वर्षक्षेत्र हैं- १. भरत, २. हैमवत, ३. हरि, ४. विदेह, ५. रम्यक् ६. है रण्यवत और ७. ऐरावत । भरत दक्षिण में, ऐगवत उत्तर में और विदेह
(महाविदेह) पूर्व व पश्चिम में है । जल्लोषध लब्धि---तपस्या विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति । तपस्वी के कानों,
आँखों और शरीर के मेल से समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं । जातिस्मरण ज्ञान-पूर्व-जन्म की स्मति कराने वाला ज्ञान । इस ज्ञान के बल पर व्यक्ति एक
से नौ पूर्व-जन्मों को जान सकता है। एक मान्यता के अनुसार नौ सौ भव तक भी जान
सकता है। जिन---राग द्वेष-रूप शत्रुओं को जीतने वाली आत्मा । अर्हत्, तीर्थङ्कर आदि इसके पर्याय
वाची हैं। जिनकल्पिक-- गच्छ से असम्बद्ध होकर उत्कृष्ट चारित्र-साधना के लिए प्रयत्नशील होना।
यह आचार जिन तीर्थङ्करों के आचार के सदृश कठोर होता है; अत: जिनकल्प कहा जाता है। इसमें साधक अरण्य आदि एकान्त स्थान में एकाकी रहता है। रोग आदि के उपाशमन के लिए प्रयत्न नहीं करता । शीत, ग्रीष्म आदि प्राकृतिक कष्टों से विचलित नहीं होता। देव, मनुष्य, तिर्यञ्च आदि के उपसर्गों से भीत होकर अपना मार्ग नहीं बदलता । अभिग्रहपूर्वक भिक्षा लेता है और अहर्निश ध्यान व कायोत्सर्ग में लीन रहता है। यह साधना संहननयुक्त साधक के द्वारा विशिष्ट ज्ञान-सम्पन्न होने के अनन्तर ही
की जा सकती है। जिन-मार्ग-जिन द्वारा प्ररूपित धर्म। जीताचार-पारंपरिक आचार। जीव - पंचेन्द्रिय प्राणी। जम्भक-ये देव स्वेच्छाचारी होते हैं । सदैव प्रमोद-युक्त, अत्यन्त क्रीडाशील, रति-युक्त
और कुशीलरत रहते हैं । जिस व्यक्ति पर क्रुद्ध हो जाते हैं, उसका अपयश करते हैं और
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