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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] परिशिष्ट-१ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश ७२६ आत्म-प्रदेश होते हैं, उसी प्रदेश में रहे हुए अनन्तानन्त कर्म योग्य पुद्गल आत्मा के साथ क्षीर नीरवत सम्बन्धित होते हैं। उन पुद्गलों को कर्म कहा जाता है। कर्म घाती और अघाती मुख्यत: दो भागों में विभक्त होते हैं। आत्मा के ज्ञान आदि स्वाभाविक गुणों का घात कहलाते हैं। वे चार हैं : १. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. मोहनीय और ४. अन्तराय। चक्ररत्न-चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में पहला रत्न । इसकी घार स्वर्णमय होती है, आरे लोहिताक्ष रत्न के होते हैं और नाभि वज्ररत्नमय होती है। सर्वाकार परिपूर्ण और दिव्य होता है। जिस दशा में यह चल पड़ता है, चक्रवर्ती की सेना उसकी अनुगामिनी होती है । एक दिन में जहां जाकर वह रुकता है, योजन का वही मान होता है। चक्र के प्रभाव से बहुत सारे राजा बिना युद्ध किये ही और कुछ राजा युद्ध कर चक्रवर्ती के अनुगामी हो जाते हैं। चक्रवर्ती-चक्र रत्न का धारक व अपने युग का सर्वोत्तम इलाध्य पुरुष । प्रत्येक अवसर्पिणी. उत्सपिणी काल में तिरसठ शलाका पुरुष होते हैं-चौबीस तीर्थङ्कर, बारह चक्रवर्ती नौ-नौ वासुदेव, बलदेव और नौ प्रतिवासुदेव । चक्रवर्ती भरत क्षेत्र के छह खण्ड का एक मात्र अधिपति-प्रशासक होता है । चक्रवर्ती के चौदह रत्न होते हैं-१. चक्र, २. छत्र, ३. दण्ड, ४. असि, ५. मणि, ६. काकिणी, ७. चर्म, ८. सेनापति, ६. गाथापति, १०. वर्षकी, ११. पुरोहित, १२. स्त्री, १३. अश्व और १४. गज । नव निधियां भी होती हैं। चच्चर-जहाँ चार से अधिक मार्ग मिलते हैं। चतुर्गति-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव आदि भवों में आत्म की संसति । चतुर्दशपूर्व-उत्पाद, अग्रायणीय, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्ति प्रवाद, ज्ञान प्रवाद, सत्य प्रवाद, आत्म प्रवाद, कम प्रवाद, प्रत्याख्यान प्रवाद, विद्या प्रवाद, कल्याण, प्राणवाय, क्रिया विशाल, लोक बिन्दुसार । ये चौदह पूर्व दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के अन्तर्गत हैं। चरम-अन्तिम। चातुर्याम-चार महाव्रत । प्रथम तीर्थङ्कर और अन्तिम तीर्थङ्कर के अतिरिक्त मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों के समय पाँच महाव्रतों का समावेश चार महाव्रतों में होता है। चारण ऋद्धिधर-देखें, जंघाचारण, विद्याचारण । चारित्र-आत्म-विशुद्धि के लिए किया जाने वाला प्रकृष्ट उपष्टम्भ । चौदह रत्न-देखें, चक्रवर्ती । चौदह विद्या- षडंग (१. शिक्षा, २. कल्प, ३. व्याकरण, ४. छन्द, ५. ज्योतिष और ऋग, २. यजु, ३. साम और ४. अथर्व), ११. मीमांसा १२. आन्वीक्षिकी, १३. धर्मशास्त्र और १४. पुराण । चौबीसी-अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी में होने वाले चौबीस तीर्थङ्कर । छट्ठ (षष्ठ) (म) तप-दो दिन का उपवास, बेला । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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