________________
७१८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३ को चले गये। स्वर्णकार भी अपने घर लौट आया, किन्तु, उसका अन्तर्द्वन्द्व शान्त नहीं हुआ। उसे भगवान् के वचन में शंका बनी रही । वह अपनी सीमित सामग्री से सम्राट भरत की विपुल संपत्ति की तुलना करने लगा । दृष्टि की स्थूलता के कारण वह मन-ही-मन कहने लगा-भरत के वैभव तथा परिग्रह के समक्ष मेरे साधन, मेरा परिग्रह समुद्र की तुलना में एक बूंद जितना भी नहीं है। अल्पपरिग्रही और अल्पारंभी तो वास्तव में मैं हूं। पुन: उसके मन में आया-अपने पुत्र के पक्षपात के कारण ही भगवान् ने उपर्युक्त बात कही हो।
स्वर्णकार के मन में वह बात घर कर गई । वह जहाँ कहीं जाता, जिस किसी से मिलता, उसके समक्ष अपने हृदय की शंका प्रकट करता और कहता-"भगवान् ऋषभ भी पक्षपात से सर्वथा नहीं छूट पाये हैं।"
सम्राट् भरत को अपने गुप्तचरों द्वारा यह ज्ञात हुआ। उसे इस बात से कोई दुःख नहीं हुआ कि स्वर्णकार उसे महापरि ग्रही, महारंभी मानता है, किन्तु, रागद्वेष विजेता भगवान् पर स्वर्णकार द्वारा लगाया जाता मिथ्या आरोप भरत को बहुत बुरा प्रतीत हुआ। भरत तिलमिला उठा।
भरत विवेकशील था। वह जानता था, स्वर्णकार अज्ञ है, मंदबुद्धि है, मिथ्या आग्रह लिये है । तर्क-युक्ति द्वारा समझाये जाने पर वह मन से अपनी बात नहीं छोड़ पायेगा। अतः सम्राट भरत ने एक विशेष युक्ति द्वारा स्वर्णकार को समझाना चाहा। उसने उसे राजसभा में बुलाया। स्वर्णकार आया। उसे सम्बोधित कर सम्राट् बोला-"जानते हो, चक्रवर्ती पर असत्य का दोषारोपण का क्या दण्ड होता है !'
- ज्योंही स्वर्णकार ने यह सुना, उसके प्राण सूख गये । उसका शरीर भय से पीला पड़ गया। वह थर-थर काँपने लगा। वह सम्राट् को बार-बार हाथ जोड़कर क्षमा-याचना करने लगा।
__ भरत ने कल्पित क्रोध प्रदर्शित कर स्वर्णकार से कहा- "अपराध का दण्ड तो तुम्हें भोगना ही होगा। तैयार हो जाओ। "भरत ने तेल से किनारे तक भरा एक कटौरा मंगवाया। स्वर्णकार से कहा- "इसे हथेली पर उठाये विनीता नगरी के सभी प्रमुख राजमार्गों, चौराहों बाजारों तथा मुहल्लों का भ्रमण कर वापस राजसभा में लौट आओ। ध्यान रहे, तेल की एक बूंद भी कटौरे से बाहर न गिर जाए। यदि एक भी बूंद कटौरे से छलक गई तो तुम्हें मत्य-दण्ड दिया जायेगा। शस्त्र-सज्जित सैनिक तुम्हारे साथ-साथ चलेंगे।"
तैल से लबालब भरे कटोरे को हथेली पर उठाये सारी नगरी में घूमना, वापस राजसभा में पहुँचना निश्चय ही मानो खांडे की धार पर चलना था। स्वर्णकार का रोमरोम कांप उठा, किन्तु, क्या करता, सम्राट् की आज्ञा थी। उसका उल्लंघन करने में किसका सामर्थ्य ! वह विवश होकर तेल का कटोरा हथेली पर लिये विनीता नगरी में घूमने को निकल पड़ा। हथियारों से लैस सिपाही उसके साथ-साथ चलने लगे।
विनीता सम्राट भरत की राजधानी था। अत्यन्त समृद्धिमयी नगरी थी। सर्वत्र आनन्द उल्लास छाया था। तरह तरह के उत्सव हो रहे थे, जिनमें मनोरम नृत्य तथा सुमधुर संगीत चल रहा था। लोगों में हर्षोल्लास व्याप्त था । नयनाभिराम सुन्दरियों का हासपरिहास छाया था। यह सब था, जिससे आकृष्ट एवं प्रभावित हुए बिना कोई नहीं रह सकता, किन्तु, स्वर्णकार को यह कुछ नहीं दीखा । न उसके कानों में मधुर संगीत की स्वर लहरी पड़ी और न नर्तकियों के धुंघरुओं की झन-झनाहट ही। सभी मनोज्ञ दृश्य उसके लिए अनर्थक थे। वह आँख उठाकर भी उनकी ओर नहीं देख पाया। उसका ध्यान पूरी तरह तैल
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org