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तत्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-तैल भरा कटोरा
२३. तेल भरा कटौरा
चिन्तन की सूक्ष्मता एवं गहनता तथा तदनुकूल चर्या का उपपादन श्रमण-संस्कृति की अपनी असाधारण विशेषता है। वह मात्र बाह्याचार या कर्मकाण्ड में आस्था नहीं रखती। उसका विश्वास अन्तःपरिणामों के परिष्कार तथा सम्मान में है, जिससे जीवन की ऊर्ध्व गामिता का सीधा सम्बन्ध है । आश्चर्य है, किन्तु सत्य है, बहुत बड़े वैभव तथा सम्पन्नता के आधिपत्य के बावजूद एक व्यक्ति अमूर्छा के कारण अपरिग्रह, अल्प परिग्रह की भूमिका में स्थान पा सकता है, जबकि दूसरा व्यक्ति अल्पतम परिग्रह का स्वामी होते हुए भी आसक्त भाव के कारण महापरिग्रही हो सकता है। जैन एवं बौद्ध-वाङ्मय में तैल भरे पात्र का एक बहुत सुन्दर दृष्टान्त है। वह इस तथ्य पर विशद प्रकाश डालता है, जो यहाँ उपन्यस्त है।
जैन-परम्परा चक्रवर्ती मरत और स्वर्णकार
एक बार का प्रसंग है। आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभ विनीता नगरी के बाह्य उद्यान में विराजित थे। समवसरण लगा था। लोग उनकी धर्म-देशना सुनने में तन्मय थे।
__ भगवान् ने अपनी देशना के अन्तर्गत परिग्रह का विवेचन किया । अल्प परिग्रह तथा महापरिग्रह का भेद बतलाया और कहा, महापरिग्रह नरक का हेतु है।
भगवान् की धर्म-देशना सुन रहे जन-समुदाय में चक्रवर्ती सम्राट् भरत भी था तथा विनीता नगरी का एक स्वर्णकार भी उपस्थित था। स्वर्णकार निर्धन था। वह अपने को अल्पपरिग्रही, अल्पाररंभी समझता था। सम्राट भरत के राज्य तथा वैभव को देखते वह उसे महापरिग्रही, महारंभी मानता था।
धर्म-परिषद् में उस स्वर्णकार ने भगवान् से जिज्ञासित किया कि संसार-चक्र से पहले वह मुक्त होगा या भरत ?
भगवान् सर्वदर्शी थे, सर्वज्ञ थे। उन्हें सब कुछ साक्षात् दृश्यमान तथा प्रतीयमान था। स्वर्णकार के मन में जो विचार आया, वह उन्हें अज्ञात नहीं था। वे जानते थे, स्वर्ण. कार परिग्रह का वास्तविक आशय नहीं जानता । वह स्थूल परिग्रह को ही परिग्रह मानता है। वह नहीं समझता कि वास्तविक परिग्रह तो मूर्छा या आसक्ति है । भगवान् का अति संक्षिप्त शब्दावली में उत्तर था-"भरत अल्परिग्रही तथा अल्पारंभी है । पहले वही मुक्त होगा।"
स्वर्णकार ने यह सुना । वह चुप हो गया, किन्तु, उसके मन में अन्तर्द्वन्द्व मच गया। सोचने लगा-सम्राट् भरत षट्खण्डमय भूमण्डल का शासक है, विशाल परिवार का धनी है। उसके पास अपार धन-दौलत है, बहुत बड़ी सेना है। भगवान् ने उसे अल्पपरिग्रही, अल्पारंभी कैसे कहा? यह कैसे सम्भव है ? कहीं भगवान के मन में ममता या पक्षपात तो नहीं आया ? स्वर्णकार यों संकल्प-विकल्प में डूबने-उतरने लगा।
भगवान् की धर्म-देशना समाप्त हुई। समस्त नर-नारी अपने-अपने निवास स्थानों
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