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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन 'वह राजा के समक्ष उपस्थित हुआ और बोला-'राजन् । आप कुछ चिन्ता न करें, आपकी अर्थ-व्यवस्था-धन सम्बन्धी सारे कार्य मैं सम्हालूंगा।'
"महाराज महासदर्शन ने गहपति का परीक्षण करना चाहा। वह उसे साथ लिये नौका पर आरूढ़ हुआ। जब नौका गंगा की धारा के बीच में पहुंची तो राजा ने उसे सम्बोधित कर कहा-'गृहपति ! मुझे स्वर्ण चाहिए, रजत चाहिए।'
"गपति बोला-'महाराज ! हम नौका को एक तट पर ले चलें।' "राजा ने कहा- गृहपति ! मुझे सोना, चाँदी यहीं चाहिए।'
"आनन्द ! गृहपति-पत्न ने अपने दोनों हाथों से जल का स्पर्श किया तथा उसमें से सोने और चांदी से भरे हुए घड़े निकाले, राजा को दिये तथा पूछा-'राजन् ! क्या यह यथेष्ट है ? क्या इतने से काम चलेगा? क्या आपको इससे सन्तोष है ?'
"राजा ने कहा- 'यह यथेष्ट है, मुझे इससे सन्तोष है।' "आनन्द ! गृहपति-रत्न की प्राप्ति से राजा बहुत हर्षित हुआ।
"आनन्द ! फिर परिणायक-रत्न-उत्तम कारबारी-समर्थ कार्यनिर्वाहक प्रादूर्भूत हुआ। वह पण्डित-प्रज्ञाशील, व्यक्त-सूझ-बूझ का धनी तथा मेधावी-प्रखर बुद्धि युक्त था। वह स्वीकरणीय - स्वीकार करने योग्य वस्तुओं को स्वीकार करने में, त्याज्यत्यागने योग्य-छोड़ने योग्य वस्तुओं को छोड़ने में समर्थ था-योग्य था।
"वह राजा महासुदर्शन के पास आया और बोला-'राजन् ! आप कोई चिन्ता न करें, मैं समग्र कार्यों का सम्यक् निर्वहण करूँगा।'
"मानन्द ! राजा परिणायक-रत्न को प्राप्त कर बड़ा हर्षित हुआ।
"आनन्द ! इस प्रकार राजा महासुदर्शन को सात रत्न प्राप्त हुए। वह उनसे युक्त था, प्रसन्न था।"
भगवान् तथागत ने भिक्षुओं को संबोधित कर कहा-“भिक्षुओ! चक्रवर्ती राजा के यहाँ सात रत्न प्रादुर्भून होते हैं। सबसे पहले चक्र-रत्न का प्राकट्य होता है। उसके पश्चात् क्रमशः हस्ति-रत्न प्रकट होता है, स्त्री-रत्न प्रकट होता है, गृहपति-रत्न प्रकट होता है तथा परिणायक-रत्न प्रकट होता है।"
१. दीघनिकाय, महासुदस्सन सुत्त २.४ । २. संयुत्त निकाय, दूसरा भाग चक्कवत्ती सुत्त ४५.५.२.
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