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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चक्रवर्ती के रत्न ७१५ ज्यों थे। वह विशिष्ट ऋद्धियुक्त था-आकाश में गमन करने में समर्थ था। वह भलीभांति प्रशिक्षित किये गये उत्तम जातीय अश्व-सदृश था। "आनन्द ! प्रशिक्षित-सुशिक्षित अश्व पर सवारी करना बड़ा अच्छा होता है, सुखप्रद होता है। राजा उसे देखकर मन में बड़ा हर्षित हुआ। "उस अश्व के परीक्षण हेतु राजा प्रात:काल उस पर सवार हुआ। कुछ ही देर में उस अश्व ने समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का चक्कर लगा डाला। वह शीघ्र ही राजा को लिये कुशावती लौट आया। राजा ने वहाँ अपनी राजधानी में प्रातराश किया। "आनन्द ! राजा महासुदर्शन के यहाँ ऐसे अश्व-रत्न का प्रादुर्भाव हुआ। "आनन्द ! फिर राजा के यहाँ मणि-रत्न-वैदूर्यमणि-नीलम प्रकट हुआ। वह उज्ज्वल, उत्तम जातीय तथा अष्टकोण-आठ पहल युक्त था। यह बड़ी सन्दरता से तराशा हुआ था, स्वच्छ था, शोभान्वित था, आकृति-सौन्दर्य की सब विशेषताओं से युक्त था । उस मणि-रत्न के उद्योत का विस्तार चारों ओर एक योजन पर्यन्त था। "आनन्द ! राजा महा सुदर्शन ने उस मणि-रत्न के परीक्षण का अभिप्राय लिये अपनी चातुरंगिणी सेना को सुसज्ज किया। उस मणि-रत्न को सेना के ध्वज पर बाँधा। अंधियारी काली रात में राजा ने सेना के साथ प्रस्थान किया। "आनन्द ! उस रत्न का इतना उद्योत-प्रकाश था कि चारों ओर के ग्रामवासियों ने उसे देखकर समझा कि दिन हो गया है। ऐसा समझकर वे अपने अपने काम में लग गये। "आनन्द ! राजा महासुदर्शन ऐसे दिव्य मणि-रत्न को देखकर बड़ा प्रसन्न हुआ। 'आनन्द ! उसके बाद स्त्री-रत्न का प्रादुर्भाव हुआ। वह स्त्री अत्यन्त रूपवती, दर्शनीय--देखते रहने योग्य, मन को प्रिय लगने वाली तथा परम सुन्दरी थी। वह न अधिक लम्बी थी, न अधिक ठिंगनी थी , न अधिक कृश-दुबली थी तथा न अधिक स्थूल-मोटी ही थी। वह न बहत काली थी, न बहुत गोरी थी। उसका वर्ण मनुष्यों के वर्ण से उत्कृष्ट, बढ़ा-चढा तथा देवों के वर्ण से कुछ न्यून था। "आनन्द ! उस स्त्री के शरीर का स्पर्श इतना कोमल, मृदुल था, मानो रुई का फाहा हो। "आनन्द ! उसके शरीर की यह विशेषता थी, वह शीत ऋतु में गर्म रहता, उष्ण ऋतु में ठण्डा रहता। "आनन्द ! उसकी देह से चन्दन जैसी तथा मुख से कमल जैसी सुरभि निकलती। "आनन्द ! वह स्त्री-रत्न-सुन्दरी राजा से पहले उठती और पीछे सोती । वह राजा का आदेश सुनने को प्रतिक्षण तत्पर रहती। उसका आचरण, कार्य-व्यापार सब राजा के मन के अनुकूल होता । वह मधुरभाषिणी थी। "आनन्द ! वह सुन्दरी राजा में इतनी अनुरत थी कि उसे मन से भी कभी दूर नहीं करती थी, देह से दूर करने की तो बात ही कहां ? "आनन्द ! राजा महासुदर्शन ऐसे स्त्री-रत्न को प्राप्त कर मन में बड़ा हर्षित था । "तदनन्तर आनन्द ! राजा के यहां गृहपति-रत्न प्रकट हुआ । अपने पूर्वाजित कुशल पुण्य कर्मों के फलस्वरूप से उसे दिव्य नेत्र प्राप्त थे, जिनसे वह सस्वामिक-जिनके स्वामी-मालिक विद्यमान हों, ऐसे निधानों को तथा अस्वामिक-जिनके स्वामी-मालिक विद्यमान न हों, ऐसे निधानों को देख लेने में सक्षम था। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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