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[खण्ड : ३
भागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन २२. चक्रवर्ती के रत्न
सैद्धान्तिक मान्यताओं के सन्दर्भ में जैसे जैन-दर्शन और बौद्ध-दर्शन में काफी सामीप्य है, वैसे ही कतिपय विशिष्ट पात्रों के स्वरूप-निर्धारण में भी बहुत कुछ सादृश्य परिलक्षित होता है। दोनों ही परम्पराओं में भौतिक वैभव. सत्ता और शक्ति के उच्चतम प्रतीक के रूप में चक्रवर्ती का वर्णन आता है। चक्रवर्ती की अनेक विशेषताओं में एक उसके रत्न हैं। रत्न का आशय अति उत्तम, प्रभावापन्न, कार्य-साधक वस्तु-विशेष से है । यद्यपि दोनों के रत्नों की संख्या में तो अन्तर है, जैन परम्परा में चक्रवर्ती के चवदह रत्न माने गये हैं, जबकि बौद्ध परम्परा में चक्रवर्ती सात रत्न वणित हैं । संख्यात्मक दृष्टि से यह विशेष भेद है, किन्तु, दोनों परम्पराओं में रत्नों का जो, जितना वर्णन आया है, उसमें परस्पर काफी सादृश्य है।
जैन-परम्परा चवदह रत्न
१. चक्ररत्न-यह चक्रवर्ती की आयुधशाला में प्रादुर्भूत होता है। चक्रवर्ती जब षट्-खण्ड-विजय के भभियान पर होता है, तब यह सेना के आगे-आगे चलता है, उसका मार्गदर्शन करता है । चक्रवर्ती उस द्वारा शत्रु का शिरश्छेद भी कर सकता है।
२. छत्ररत्न-इसका आयाम-विस्तार-लम्बाई-चौड़ाई बारह योजन होती है। छत्राकार अवस्थित होता हुआ यह चक्रवर्ती की सेना का शीत, वर्षा एवं आतप से बचाव करता है। छत्र की ज्यों इसे समेटा जा सकता है।
३. दण्डरत्न-विषम, ऊबड़खाबड़ रास्तों को यह समतल बनाता है। इसके द्वारा वैताढ्य पर्वत की दोनों दिशाओ के द्वार उद्घाटित होते हैं, चक्रवर्ती उत्तर भरत क्षेत्र में पहुँचता है।
४. असिरत्न-इसकी लम्बाई पचास अंगुल, चौड़ाई सोलह अंगुल तथा मोटापन आधा अंगुल प्रमाण होता है। इसकी धार बड़ी तीक्ष्ण होती है । उस द्वारा यह दूरवर्ती शत्रुओं को विनष्ट, ध्वस्त कर सकता है।
५. मणिरत्न-सूरज और चाँद की ज्यों यह रत्न अंधेरे को दूर करता है। इसे मस्तक पर धारण करने से मनुष्यकृत, देवकृत एवं तियंच्-कृत-पशु-पक्षियों द्वारा किये गये उपसर्ग कोई असर नहीं कर सकते। इसे हस्ति-रत्न के दाहिने कुंभ-स्थल पर प्रस्थापित करने से अवश्य ही विजयोपलब्धि होती है।
६. काकिणीरत्न-यह चार अंगुल-परिमित होता है। इस द्वारा चक्रवर्ती वैताढ्य पर्वत की गुफा में उनपचास मंडलों की रचना करता है। प्रत्येक मंडल का प्रकाश एक-एक योजन पर्यन्त विस्तीर्ण होता है। चक्रवर्ती इसी रत्न द्वारा ऋषभकूट पर्वत पर अपना नाम उत्कीर्ण करता है।
७. धर्मरत्न-चक्रवर्ती द्वारा संप्रवर्तित दिग्विजयाभियान के समय यह रत्न नदियों को पार कराने हेतु नौका के रूप में परिणत हो जाता है । अनार्य राजाओं, म्लेच्छों द्वारा मूसलधार, घोर वर्षात्मक उपद्रव किये जाने पर यह सेना की रक्षा करता है।
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