________________
तत्त्व : आचार : कथानुयोग]
कथानुयोग-कल्याणमित्र
किस प्रकार अभ्यास करता है, इसे भली-भांति समझो। आनन्द ! वह भिक्षु विवेक—सम्यक ज्ञान, वैराग्य तथा निरोध-दुःखावरोध की दिशा में प्रेरित करने वाली, गतिशील करने वाली सम्यक दृष्टि का चिन्तन-मनन करता है, अभ्यास करता है, जिससे मुक्ति सधती है।
"वह विवेक, वैराग्य एवं निरोध की दिशा में प्रेरित तथा गतिशील करने वाले सम्यक संकल्प का चिन्तन-मनन एवं अभ्यास करता है, जिससे मुक्ति सधती है।
___"वह विवेक. वैराग्य तथा निरोध की दिशा में प्रेरित एवं गतिशील करने वाले सम्यक् वाच का-यथार्थ कर्मान्त का चिन्तन-मनन और अभ्यास करता है, जिससे मुक्ति फलित होती है।
"वह विवेक, वैराग्य तथा निरोध की दिशा में प्रेरित एवं गतिशील करने वाले सम्यक व्यायाम का चिन्तन-मनन करता है, जिससे मुक्ति सुलभ होती है।
"वह विवेक, वैराग्य तथा निरोध की दिशा में प्रेरित एवं गतिशील करने वाली सम्यक् स्मृति का चिन्तन-मनन करता है, अभ्यास करता है, जिससे मुक्ति साधित होती है।
"वह विवेक, वैराग्य तथा निरोध की दिशा में प्रेरित एवं गतिशील करने वाली सम्यक् समाधि का चिन्तन-मनन करता है, अभ्यास करता है, जिससे मुक्ति सुलभ होती है।
"आनन्द ! जिसको इस प्रकार का कल्याणमित्र प्राप्त हो जाता है, दह भिक्षु आर्य अष्टांगिक मार्ग की आराधना करता है, साधना करता है, अभ्यास करता है।
"आनन्द ! इस बात को यों समझो कि कल्याणमित्र का प्राप्त होना एक प्रकार से ब्रह्मचर्य का-संयम-साधना का सर्वथा फलान्वित हो जाना है।
'आनन्द ! मैं सबका कल्याणमित्र हैं। जन्म लेने वाले--पूनर्भव की श्रृंखला में जकडे हुए प्राणी मेरी सन्निधि में आकर जन्म से छूट जाते हैं। वृद्ध होने वाले प्राणी वृद्ध त्व से उन्मुक्त हो जाते हैं, मरणशील प्राणी मरण से छूट जाते हैं, दुःख-शोक आदि में निपतित प्राणी दुःख आदि से छूट जाते हैं।
"आनन्द ! इस प्रकार कल्याणमित्र का प्राप्त होना मानो ब्रह्मचर्य का श्रामण्यसाधना का सर्वथा सध जाना है।'
-
१. संयुक्त निकाय, दूसरा भाग, उपड्ढसुत्त ४३.१.२ । Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org