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________________ ७१० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशोलन [खण्ड:३ तो आपके इस दुष्कर तपश्चरण के कारण हो सकते हैं, किन्तु, महाराज पूर्णचन्द्र का पुत्र गुणसेन आपके कल्याणमित्र के रूप में इसका कारण किस प्रकार बना, कृपया बतलाएं।" इस पर अग्नि शर्मा बोला-गुणसेन मेरा कल्याणमित्र किस प्रकार है, सुनो-जो पुरुष उत्तम कोटि के होते हैं, वे स्वयं धर्म-साधना में लगते हैं। जो मध्यम कोटि के होते हैं, वे दूसरों से प्रेरणा प्राप्त कर धर्माचरण में लगते हैं तथा जो अधम कोटि के होते हैं, वे किसी भी प्रकार से धर्माराधना में नहीं लगते। "संसार एक कारागृह की ज्यों है । जीव बन्दी की तरह उसमें जकड़ा हुआ है। जो ऐसे कारागारबद्ध जीव को धर्म में प्रेरित करता है, वह निःसन्देह कल्याणमित्र है। राजा ने जब अग्निशर्मा के मुख से यह सुना तो उसे अपने बचपन का सारा घटनाक्रम स्मरण हो आया। उसका मस्तक लज्जा से झुक गया। वह बोला-"महात्मन् ! गुणसेन ने आपको धर्माराधना में किस प्रकार प्रेरित किया ?" अग्नि शर्मा ने कहा- “महानुभाव ! उसने मुझे अनेक प्रकार से प्रेरणाएँ दीं, जिनको मैंने धर्माराधना के निमित्त के रूप में स्वीकार किया।" राजा गुणसेन ने मन-ही-मन कहा- “यह तपस्वी कितना महान है । इसने मेरे द्वारा किये गये अनुचित व्यवहार को भी उपकार एवं प्रेरणा के रूप में स्वीकार किया।" राजा गुणसेन ने तपस्वी को अपना परिचय दिया, कहा-“मैं महापापात्मा हूँ। मैंने आपको सन्ताप दिया, पीड़ा दी । मैं वास्तव में गुणसेन नहीं हूँ, अगुणसेन हैं।" तपस्वी अग्निशर्मा बोला-"राजन् ! मैं आपका स्वागत करता हूँ। मैं आपको अगुणसेन कैसे मानूं। मैं अपने पूर्ववर्ती जीवन को जब देखता हूँ तो वह मुझे बड़ा निम्न प्रतीत होता है। दूसरों द्वारा दिये गये अन्न पर मेरा जीवन निर्भर था। आपकी ही प्रेरणा से मैं यह तपोमय विभूति प्राप्त कर सका। सचमुच आप मेरे कल्याणमित्र हैं। आपने मुझे धर्ममय जीवन से जोड़ दिया।" राजा गुणसेन बोला-"महात्मन् ! आप वास्तव में महान् हैं।" बौद्ध-परम्परा तथागत द्वारा आनन्द को शिक्षा एक समय का वृत्तान्त है, भगवान् बुद्ध शाक्य-जनपद में शाक्यों के सक्कर नामक नगर में ठहरे हुए थे, विहरणशील थे । उस समय आयुष्मान् आनन्द, जहाँ तथागत थे, वहाँ आया, भगवान् को वन्दन-अभिवादन कर एक तरफ बंठा। __आयुष्मान आनन्द ने भगवान् को निवेदित किया-"भन्ते ! कल्याणमित्र का प्राप्त हो जाना मानो ब्रह्मचर्य का-श्रमण-धर्म का ओधा फल-निष्पन्न हो जाना है।" भगवान् ने कहा- ''आनन्द ! यो मत कहो, यो मत कहो। आनन्द ! कल्याणमित्र का प्राप्त होना तो ब्रह्मचर्य का सर्वथा फल-निष्पन्न हो जाना है । आनन्द ! ऐसा विश्वास करो कि जिस भिक्षु को कल्याणमित्र प्राप्त हो जाता है, वह आर्य अष्टांगिक मार्ग का चिन्तन तथा मनन करता है, उसका अभ्यास करता है। "आनन्द ! जिसे कल्याणमित्र प्राप्त हो जाता है, वह भिक्षु आर्य अष्टांगिक मार्ग का १. समराइच्चकहा प्रथम भव, पृष्ठ १२-२२ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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