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________________ तत्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग — कल्याणमित्र ७०६ अग्निशर्मा अपनी प्रतिज्ञानुसार तपस्वी जीवन व्यतीत करने लगा । वैसा करते उसे बहुत समय बीत गया। तपोवन के निकट वसन्तपुर नामक नगर था । वहाँ के निवासी उस तपस्वी से बहुत प्रभावित थे । वे उसका बड़ा आदर करते थे । उसके प्रति भक्ति रखते थे । इधर क्षितिप्रतिष्ठ नगर में राजकुमार गुणसेन युवा हुआ। उसके पिता राजा पूर्णचन्द्र ने उसका विवाह कर दिया। उसे राज्याभिषिक्त कर राजा महारानी के साथ तपोवन में चला गया । कुमार गुणसेन राजा हो गया । राजा गुण एक बार राजा गुणसेन वसन्तपुर आया । वसन्तपुर के नागरिकों ने राजा का अभिनन्दन किया । राजा ने नागरिकों को यथायोग्य सम्मानित किया । दूसरे दिन राजा अश्वारूढ होकर भ्रमण हेतु बाहर निकला । वह घूमता घामता एक सहस्राम्रवन उद्यान में रुका । इस बीच दो तापसकुमार नारंगियों की टोकरी लिए उधर आये । राजा को उनसे समीपवर्ती आश्रम के सम्बन्ध में जानकारी मिली। राजा के मन में आश्रम के कुलपति आर्जव कौण्डिन्य के दर्शन करने की उत्कण्ठा जागी । वह उनके तपोवन में गया। कुलपति के दर्शन किये। उनके साथ आलाप-संलाप किया। उनको विनयपूर्वक समस्त तपस्वियों के साथ अपने घर भोजन ग्रहण करने का अनुरोध किया । कुलपति ने अग्नि शर्मा के तप क्रम से राजा को अवगत कराते हुए कहा कि उसे छोड़कर हम तुम्हारे यहाँ भोजन का आमन्त्रण स्वीकार करते हैं । एक प्रसंग उस महान तपस्वी का परिचय सुनकर राजा के मन में उसके प्रति बहुत श्रद्धा उत्पन्न हुई। राजा ने कुलपति से प्रार्थना की कि मैं ऐसे महान् तपस्वी के दर्शन करना चाहता हूँ । कुलपति ने बतलाया कि समीपवर्ती आम्रवृक्षों के नीचे वह तपस्वी ध्यान में रत है । तुम वहाँ जाओ, उसके दर्शन कर सकते हो । राजा कुलपति के बताये स्थान पर गया । वहाँ तपस्वी अग्निशर्मा पद्मासन में बैठा था। उसके दोनों नेत्र स्थिर थे । उसका चित्त-व्यापार प्रशान्त था । वह ध्यान में अभिरत था । तपस्वी को देखकर राजा अत्यन्त हर्षित हुआ। उसने उसे नमस्कार किया । तपस्वी ने राजा को आशीर्वाद दिया, स्वागत किया। राजा तपस्वी के निकट बैठा तथा जिज्ञासा की — महात्मन् ! आप बड़ा दुष्कर तप कर रहे हैं। इसका क्या कारण है ? ऐसी प्रेरणा कैसे प्राप्त हुई ? तपस्वी अग्नि शर्मा बोला - " मैं अत्यन्त दरिद्र था । दारिद्र्य घोर दुःखमय होता । उसके कारण व्यक्ति औरों द्वारा तिरस्कृत होता है । मैं कुरूप था, जिससे व्यक्ति उपहासनीय होता है । इन दो कारणों के साथ-साथ महाराज पूर्णचन्द्र का पुत्र गुणसेन नामक कल्याणमित्र भी मेरे वैराग्य का कारण बना ।" ज्योंही राजा ने गुणसेन नाम सुना, उसे आशंका हुई, गुणसेन तो उसी का नाम है, तपस्वी का क्या आशय है ? राजा ने तपस्वी अग्निशर्मा से पूछा - " दरिद्रता का दुःख, तिरस्कार, उपहास आदि Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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