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[खण्ड : ३
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन २१. कल्याणमित्र
भारतीय संस्कृति में धर्म, जो जीवन के परिष्करण, उन्नयन तथा उत्थान का पर्यायवाची है, का सर्वोपरि स्थान है। कोई किसी का भौतिक किंवा लौकिक दृष्टि से कितना ही उपकार करे, किसी को धार्मिक अभ्युदय की दिशा में प्रेरित करने, धर्ममय, साधनामय, तपोमय जीवन से जोड़ने के रूप में किये जाने वाले उपकार की तुलना में बहुत साधारण है। श्रमण-संस्कृति में ऐसे पुरुष के लिए, जिसके कारण किसी भी तरह किसी को धर्माराधना में लगने का सुअवसर प्राप्त होता है, 'कल्याणमित्र' कहा गया है। यह शब्द बड़ा महत्वपूर्ण भाव लिए है। सांसारिक मित्र, जिनका सम्बन्ध प्रायः पारस्परिक स्वार्थिक आदान-प्रदान आदि पर टिका है, बहुत मिलते हैं, किन्तु, धर्म में प्रेरित करने वाले मित्र बहुत कम प्राप्त होते हैं।
जैन तथा बौद्ध-वाङ्मय के अन्तर्गत 'कल्याणमित्र' शब्द विभिन्न परिप्रेक्ष्यों में एक ही भाव में प्रयुक्त हुआ है, जो यहाँ उपस्थापित प्रसंगों से स्पष्ट है।
जैन-परम्परा
अग्निशर्मा
जम्बू द्वीप में अपर विदेह देश के अन्तर्गत क्षितिप्रतिष्ठ नामक नगर था। वहां के राजा का नाम पूर्णचन्द्र तथा रानी का नाम कुमुदिनी था। उनके गुणसेन नामक पुत्र था। वह बचपन से ही अत्यन्त विनोदप्रिय था।
___ उसी नगर में एक पुरोहित था। उसका नाम यज्ञदत्त था। वह धर्मशास्त्रों का ज्ञाता था। लोगों में उसका बड़ा सम्मान था। उसकी पत्नी का नाम सोमदेवा था। उसके अग्नि शर्मा नामक पुत्र था। वह देखने में बड़ा कुरूप था। राजकुमार गुणसेन उसे कुतूहलवश बहुत तंग करता था । कभी-कभी उसे गधे पर बिठा देता। बहुत से बालकों से घिरा हुआ वह उसका बहुत प्रकार से परिहास करता। उसके मस्तक पर छत्र के रूप में जीर्ण सूप रखवा देता। उसे महाराज शब्द से सम्बोधित करता, उसका उपहास करता। यों उसे राजमार्ग पर इधर-उधर घुमाता।
राजकुमार गुणसेन द्वारा प्रतिदिन यों सताये जाने पर अग्निशर्मा के मन में संसार से विरक्ति उत्पन्न हो गई। वह नगर से निकल पड़ा। चलते-चलते एक महीने बाद वह सुपरितोष नामक तपोवन में पहुंचा। वहाँ एक तपस्वी-कुल का निवास था। आर्जव कौण्डिन्य नामक तपस्वी उसके प्रधान थे। अग्निशर्मा ने उनके दर्शन किये। वह उनसे बहुत प्रभावित हुआ । अपनी दुःखपूर्ण गाथा उनसे कही। उनके उपदेश से उसने तापस-दीक्षा ग्रहण की तथा प्रतिज्ञा की कि समस्त जीवन-पर्यन्त मैं एक-एक महीने का उपवास करूंगा। मासिक उपवास की समाप्ति पर पारणे के दिन मैं जिस गृह में पहले-पहल प्रवेश करूंगा, उस प्रथम गृह से प्रथम बार में यदि भिक्षा प्राप्त हो जायेगी तो भोजन ग्रहण करूँगा, अन्यथा वापस लौट जाऊँगा तथा फिर बिना पारणा किये ही पुन: अपने मासिक उपवास क्रम में लग जाऊंगा।
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