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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग - चार प्रत्येक बुद्ध : जैन एवं बौद्ध परम्परा में ७०७
रख लेने में कौन-सा बड़ा दोष हो गया ? नमक ही तो है, आखिर स्वर्ण, रजत या रत्नराशि तो नहीं है ?”
गांधार राजर्षि – “यह क्या ? दोषारोपण भी और उसका आग्रह भी ! आप भिक्षु नहीं हैं । केवल पेटभरू हैं। क्या विदेह देश का राज पेट भराई के लिए छोड़ा है ? क्या यही आपकी साधना है ?"
विदेह राजर्षि- -" आप मेरी साधना को बखानते हैं, मुझे पेट भरू बताते हैं । आप स्वयं को नहीं देखते, कितना क्रोध आपको आ रहा है। कितने अपशब्दों का प्रयोग आप मेरे लिए कर रहे हैं। नमक की गठरी रख लेने मात्र से मेरे असंग्रह की साधना टूटती है, तो क्या आपके आवेश पूर्ण व्यवहार से आपकी अहिंसा की साधना नहीं टूटती ? आप मेरे पर हुकूमत करते हैं, क्या दूसरों पर हुकूमत करने के लिए आपने गांधार देश का राज छोड़ा है ?
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गांधार राजर्षि सम्हाले । अपने आपको शान्त करते हुए वे बोले - "आप ठीक कहते हैं । मैने अपनी अहिंसा की साधना को खण्डित किया है। मुझे आप पर अनुशासन करने की कोई अपेक्षा नहीं थी । अच्छा होता, मैं अपने को ही सम्हाल के रखता। आप क्षमाशील हैं । मुझे अपनी भूल के लिए क्षमा करें। "
सुनते ही विदेह राजर्षि भाव-विभोर हो गये । उन्हें भी अपना दोष दीखने लगा । वे गांधार नरेश से बोले - "आप तो महान् हैं। मैंने बहुत ही तुच्छता का परिचय दिया । आपने तो हुकूमत क्या की, मेरे ही हित के लिए सब कुछ कहा । मैंने गठरी रखकर असंग्रह की साधना तोड़ी और अभी आवेश में आकर अहिंसा की साधना तोड़ी। आप पूज्य हैं, मुझे क्षमा करें ।" यह कहते हुए विदेह - राजर्षि गांधार- राजर्षि के चरणों में गिर गये । गांधार - राजर्षि ने उन्हें उठाकर अपनी बाँहों में भर लिया। दोनों का हृदय भर गया । गला रुँध गया । आँखें सजल हो गई। दोनों अपने आपको दोषी बताते रहे और मूक स्वर में एक-दूसरे से क्षमा मांगते रहे ।
उपलब्धि
त्याग और साधना का यह एक अनूठा उदाहण है । चन्द्र ग्रहण को देखकर भिक्षु चर्या के लिए प्रेरित हो जाना व्यक्त करता है कि मनुष्य किसी भी घटना-प्रसंग से कितनी ही सुन्दर प्रेरणा ले सकता है। नमक की गठरी का रख लेना व्यक्त करता है, अस्वाद की साधना कठिन है और इसमें कभी-कभी बड़े-बड़े योगी भी असफल रह जाते हैं । गांधार देश के राजर्षि अस्वाद की साधना में सफल रहे, पर, अहिंसा की साधना में एक बार के लिए डगमग गये। फिर सजग हो गये । तात्पर्य यह हुआ, साधक अपूर्ण होता है और वह अपने को सम्हाल सम्हाल कर मंजिल की ओर बढ़ता है । गांधार राजर्षि आवेश की भाषा में कहते गये, तब तक विदेह राजर्षि भी उग्र होते गये । उनके क्षमा-याचना करते ही विदेह राजर्षि मी अपनी भूलों को स्वीकार करने लगे । यह अहिंसा की निरूपम सफलता है ।
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