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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] तत्त्व अतिरिक्त नारक और देव-योनि का स्वीकार हुआ है। नारक योनि अत्यधिक क्लेशपूर्ण होती है, देवयोनि अत्यधिक सुख-समृद्धिमय होती है। कौन-कौन से कर्म इन योनियों में उत्पन्न होने के हेतु हैं, इसका निरूपण जो दोनों परम्पराओं में हुआ है, वह बहुत अंशों में सादृश्य लिये हुए है। भगवान महावीर ने कहा-“जीव चार स्थानों से-हेतुओं से नरक-योनि के कर्म बाँधते हैं, जो इस प्रकार हैं--१. महा आरंभ--घोर, भीषण हिंसामूलक विचार एवं कर्म । २. महा परिग्रह--अत्यधिक संग्रह-लिप्त भाव तथा वैसे कर्म। ३. पञ्चेन्द्रियमनुष्य, पशु, पक्षी आदि पञ्चेन्द्रिय-ऐन्द्रियिक दृष्टि से पूर्णत्व-प्राप्त प्राणियों के वध... हत्या। ४. आमिष भोजन । . चार कारणों से प्राणी तिर्यच-पशु-पक्षियों की योनि प्राप्त करता है। वे ये हैं१. मायानुगत निकृति-छलनापूर्ण व्यवहार-जालसाजी। २. अलीक-वचन--असत्यभाषण । ३. उत्कंचनता--मिथ्या प्रशंसा, खुशामद अथवा किसी भोले, अज्ञ जन को ठगने हेतु उद्यत धूर्त--जालसाज व्यक्ति का किसी समीप स्थित विचक्षण व्यक्ति के संकोचवश कुछ समय अपनी धूर्तता छिपाये रहना, निश्चेष्ट निष्प्रयत्न रहना। ४. वञ्चनता-दूसरों के साथ प्रवञ्चना पूर्ण यवहार करना, ठगना। चार कारणों से जीव मनुष्य योनि प्राप्त करता है--१. प्रकृति-भद्रता-स्वभावगत सौम्यता, शालीनता, जिससे किसी को भय या नुकसान की आशंका न हो। २. प्रकृतिविनीतता-----स्वभावगत विनय, बिनम्र-भाव । ३. सानुक्रोशता --अनुक्रोश- दया या करुणापूर्ण वृत्तिशीलता । ४. अमत्सर ता-मात्सर्य या ईप्यांपूर्ण वृत्ति से असंलग्नता-ईष्य रहित व्यवहृतिः चार कारणों से जीव देव-योनि प्राप्त करता है। वे इस प्रकार हैं--१. सरागसंयम-रागपूर्वक, आसक्त गाव सहित संयम क अनुसरण, चारित्र-पालन ।२. संयमासंयम--संयम तथा असंयम-युक्त, आंशिक विरतिमय श्रावक-धर्म का परिपालन । ३. अकाम निर्जरा-मोक्ष के अभिलाष गा लक्ष्य बिना अथवा मजबूरी से का यक्लेश सहना ।४. बाल-तप--सत्-असत्-विवेक बिना-अज्ञानावस्था में तपश्चरण ।' ___ एक बार की घटना है, भगवान् तथागत कोशल देश में शाला नामक गांव में पहुँचे। वहाँ अधिकांशतः ब्राह्मणों की आबादी थी। वह ब्राह्मण-ग्राम कहा जाता था। शाला ग्रामवासी ब्राह्मणों ने सुना था- भगवान् मंगल-कीर्तिशाली हैं, वे अर्हत् हैं, बुद्ध हैं, ब्रह्मचर्य-प्रकाशक हैं। ऐसे अर्हतों का, महापुरुषों का दर्शन करना उत्तम है। शालावासी ब्राह्मण जहाँ भगवान् थे, वहाँ गये। उन्हें वन्दन-अभिवादन किया। कुछ ने भगवान् से कुशल-क्षेम पूछा। वैसा कर वे एक तरफ बैठे। कइयों ने भगवान को हाथ जोड़े, उनके सम्मुखीन बैठे। कइयों ने अपने नाम-गोत्र का उच्चारण किया, नमन किया. एक ओर बैठ गये । कई बिना कुछ बोले चुपचाप वन्दन कर एक तरफ बैठे। १. योपपातिक सूत्र, ५६ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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