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आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
"तेज उस्तरे की ज्यों तीक्ष्ण धारा-युक्त, अत्यन्त दुर्गम वैतरणी नदी को, जिसके विषय में तुमने सुना होगा, वे इस प्रकार तैरते हैं पार करते हैं मानो उन्हें बाण मार-मार कर तथा उनके शक्ति तीक्ष्ण नोकयुक्त भाले आदि शस्त्र चुमो चुभोकर चलाया जाता हो ।
"ज्योंही कोई नौका पास से गुजरती है, उस पर चढ़ने के लिए उद्यत नारकीय जीवों की गर्दन में परमधार्मिक देव तीक्ष्ण कीलें चुभो देते हैं, जिससे वे चेतना - विहीन - मूच्छित हो जाते हैं । इतने में दूसरे परमाधार्मिक देय उन्हें लम्बी-लम्बी शूलों एवं त्रिशूलों में पिरोपिरो कर नीचे गिरा देते हैं ।
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" किन्हीं - किन्हीं नारकीय जीवों को, उनकी गर्दन में शिलाएं बाँध बाँध कर गहरे पानी में डुबो देते हैं । दूसरे परमाधार्मिक देव नारकीय जीवों को अत्यन्त परितप्त तथा आग से कलम्बुपुष्प सदृश लाल बनी हुई धूल में, भोभर में इधर-उधर घुमाते हैं, उन्हें, पकाते हैंमूंजते हैं ? "
"क्रूरकर्मा परमधार्मिक देव दिशाओं में चारों ओर आग जलाकर अज्ञ नारकीय जीवों को अभितप्त करते हैं-- जलाते हैं । वे नारकीय जीव अग्नि में डाली हुई जीवित मछलियों की तरह परितप्त होते हुए तड़फते हैं, वहीं पड़े रहते हैं ।
"सारिपुत्त ! मैं वैसे प्राणी को जानता हूँ, उसके कार्य-कलाप देखते यह जानता हूँ कि जिस मार्ग का वह अवलम्बन किये हुए है, उसके कारण वह देह त्याग के पश्चात् नरक में विनिपतित होगा- ---नरक में उत्पन्न होगा ।
"नरक में उत्पन्न प्राणी को अत्यन्त दुःख झेलते, तीव्र कटु - घोर यातना से पीड़ित होते जानता हूँ, अनुभव करता हूँ। जैसे पुरुषभर ऊँची लपट रहित, घूमरहित अंगार- राशि हो । अत्यन्त तेज धूप से पीड़ित, थका माँदा, प्यासा, बेहाल, होश - हवास खोये कोई मनुष्य उस अंगार-राशि की ओर आए । तब एक चक्षुष्मान् पुरुष -- पैनी दृष्टि या परखयुक्त पुरुष इसका गतिक्रम, चाल आदि देखकर यह जान लेता है कि वह मनुष्य इसी अंगार-राशि में विनिपतित होगा । कुछ देर बाद वैसा ही होता है । वह उसे अंगार - राशि में गिरे। 'हुए तथा तीव्र-कटु वेदना भोगते हुए देखता है। वैसे ही सारिपुत्त ! मैं नरक में प्राणी को अत्यन्त दु:ख एवं कटु-तोव्र वेदना, यातना भोगते देखता हूँ। 3
नरक-योनि, देव-योनि आदि के कारण
जैन-दर्शन तथा बौद्ध दर्शन दोनों पुनर्जन्मवादी, परलोकवादी हैं । वे व्यक्ति द्वारा आचरित शुभ, अशुभ कर्मों के आधार पर प्राणी के भिन्न-भिन्न गतियों में जाने या उत्पन्न होने का प्रतिपादन करते हैं । क्रूर, हिंस्र, निष्करुण कर्म निम्न गति के तथा कुशल, पुण्य या शुभ कर्म उच्च गति के कारण होते हैं। दोनों ही परंपराओं में मनुष्य एवं तियंच योनि के
१. सूत्रकृतांग १.५.१.६-१०
२. सूत्रकृतांग १.५.१.१३
३. मज्झिमनिकाय, महासीनाद सुत्तन्त १.२.२.
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