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तस्व:भापारमानुयोग] जिस मार्ग का अवलम्बन कर प्राणी बेहत्याग कर प्रेत-पोनि मेल्पन्न होता है पलमार्ग को जानता।
"मारिपुत्त । में मनुष्य को जानता, मनुष्य-पोनि-पामिनी प्रतिपरको जानता, जिस मार्ग का मवलम्बन कर प्राणीह-त्याग कर मनुष्य-पोनि में जम्म नेता है, पस मार्ग को जानता हूँ।
"सारिपुत्त । बों को जानता, लोक-गामिनी मलिपर को मामला, जिस मार्ग का अपलस्बन करमाणी देह-माग पचात् देवलोक में अस्पन होता है, उस मार्ग को जानता हूँ।
सारिपुत्त में निर्वाण को जानता, जिस मार्ग का अवलम्बन कर प्राणी इसीह से भालबों का विलय कर, तसिक बिमुक्ति स्वायत्त कर निर्माण-लाम करता है, उस मार्ग को मानता है।" परक गति
पुनर्जन्मबावी आस्तिक वर्षानों के अनुसार मानीर्ण भशुभ, पाप या भवपाल कमों के दुःख-संकुल परिपाक की पराकाष्ठा रक गति है।रकोपपल्म प्राणी कष्टों की अति भयावह श्रृंखला में प्रतिवर होता है। वेवमा, पीड़ा, छजन की भोषण मार उस पर पड़ती है, जिसे उसको रोते-पीसले, क्रन्दन करते, बिलपते विवश हो सहना पड़ता है। यह उत्तरोत्तर उपत, उत्पीड़ित होता जाता है, मरता नहीं। कष्ट झेलने हेतु ही यह गति है।
जैन एवं नौ दोनों ही परंपरामों में जो इसका चिोकम मा, बना भीति.
आर्य सुषर्मा ने कहा- मैंने केवली-सर्वश, महषि-महान् द्रष्टा भगवान महावीर से पद्या किनारक-नरकगत जीव किस प्रकार के अभिताप से-पीड़ा से युक्त होते? मुने । आपको यह बात है, मैं नहीं जानता। बतलाए, बाल-मानी जीव मरक में किस प्रकार कष्ट पाते हैं?"
मेरे द्वारा यह पूछे जाने पर महानुभाव-परम प्रभाव-युक्त, काश्यपगोत्रीय, आशुप्रश-समय पदार्थों को तत्क्षण जानने में समर्थ भगवान् महागीर ने कहा-"नरक दुःखरूप है, विषम है, अत्यन्त दैन्यपूर्ण-वयनीयतायुक्त तथा दुष्कृतिक---दुष्कर्म या अशुभ कम करने वालों-दुष्कर्मों का फल भोगने वालों से आपूर्ण है। मैं उस सम्बन्ध में बतलाता
नारक-नरकोरपन्न प्राणी, परमाषामिक देवों द्वारा 'मार डालो', 'काट दो', 'भेदन कर दो', 'जला दो'; इस प्रकार कहे जाते क्रूरतापूर्ण शब्दों को सुन संशाहीन की ज्यों होकर सोचते हैं कि हम इनसे बचकर किस दिशा की ओर भागे, कहाँ जान बचाएं।
"जलती हुई अंगारों की राशि तथा आग की लपटों से तपती अत्यन्त उष्ण नरकभूमि पर चलते हुए, दग्ध होते हुए नगरकीय जीव करुण क्रन्दन करते हैं। वे चीखते-चिल्लाते स्पष्ट प्रतीत होते हैं। वे ऐसे पोर नरक में चिरकाल तक रहते हैं।
१. मज्झिम निकाय, महासीहनाद सुत्तन्त १.१.२ २. सूत्रकृतांग १.५.१.१-२
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