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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
सारिपुत्त ने कहा "अष्टांगिक आर्य मार्ग ही वह मार्ग है, जिसका अवलम्बन करने से इन सबों का नाश हो सकता है।"
"आयुष्मन् । अप्रमत्त --- प्रभावशून्य होकर उसी मार्ग का अवलम्बन करना चाहिए ।"
गतियाँ
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भारतीय दर्शनों में चार्वाक के अतिरिक्त प्रायः सभी दर्शन पुनर्जन्मवादी हैं । यद्यपि ata आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करते, किन्तु, निर्वाण प्राप्ति से पूर्व तक उनकी संस्कार-धारा के अस्तित्व की जो मान्यता है, उसके कारण पुनर्जन्म बाधित नहीं होता ।
स्व-स्व कर्मानुरूप पशु-पक्षियों में, मनुष्यों में, देवों में, नारकों में उत्पन्न होना 'गति' कहा जाता है। गति का अर्थ गमन या जाना है। जीव अपने आचीर्ण कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जाता है, आयुष्य- पर्यन्त संचरणशील रहता है। कर्म-क्षय के अनन्तर सिद्धत्व में जाता है ।
जैन एवं बौद्ध दर्शन में गतिविषयक मान्यता में काफी सामीप्य है ।
गतियाँ पाँच बतलाई गई हैं-- १. नरक गति, २. तियंच गति, ३ मनुष्य गति, ४. देवगति तथा ५. सिद्ध गति । २
गति संज्ञक नाम-कर्म के उदय से जो पर्याय अवस्था प्राप्त होती है, विविध योनियों में उत्पत्ति होती है, गमन होता है, उसे गति कहा जाता है।
गति के चार भेद हैं-१. नरक गति, २. तियंच गति, ३. मनुष्य गति तथा ४. देव गति !
भगवान् तथागत ने सारिपुत्त को संबोधित कर कहा--"सारिपुत्त ! पाँच गतियाँ होती हैं - १. नरक २ तिर्यक् योनि - पशु, पक्षी आदि, ३. प्रेत्य विषय-प्रेत, ४. मनुष्य एवं ५. देव ।
"सारिपुत्त ! मैं नरक को जानता हूं, निरयगामिनी प्रतिपद् को जानता हूँ, जिस मार्ग का अवलम्बन कर देह त्याग के पश्चात् प्राणी नरक में विनिपतित होता है, नरकगामी होता है, उस मार्ग को जानता हूँ ।
"सारिपुत्त ! मैं तिर्यक् योनि को जानता हूँ, तिर्यक् योनि-गामिनी प्रतिपद् को जानता हूँ, जिस मार्ग का अनुसरण कर देह त्याग के पश्चात् प्राणी तिर्यक् योनि - पशु, पक्षी आदि के रूप में जन्म लेता है उस मार्ग को जानता हूँ ।
"सारिपुत! मैं प्रेत्य विषय को जानता हूँ, प्रेत्य विषय-गामिनी प्रतिपद् को जानता हूँ,
१. संयुक्त निकाय, भवसुत्त ३६.१३ दूसरा भाग
२. स्थानांगत सूत्र ५.३.१७५
३. (क) प्रज्ञापना पद २३.२.२६३
(ख) कर्मग्रन्थ, भाग ४, गाथा १०
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