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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग - चार प्रत्येक बुद्ध : जैन एवं बौद्ध परम्परा में ७०५
बच्चे जब भला-बुरा, हित-अहित समझने योग्य हो गये, तब मैंने प्रव्रज्या स्वीकार की । तुम उनका फिक्र मत करो । प्रव्रजित जीवन की सम्यक् आराधना में प्रसन्नतापूर्वक लगी रहो। वे बोले - "बच्चे यह जानने लगे हैं, अमुक पदार्थ कच्चा है, पका है, सलवण है—-सलोना है - समुचित नमक युक्त है या अलवण है— अलोना है। उनमें ऐसी योग्यता आ गई है । यह देखकर मैं भिक्षाचर्या में भिक्षु जीवन में प्रव्रजित हुआ हूँ । तुम सुखपूर्वक भिक्षाचर्या में प्रव्रजित जीवन में अभिरत रहो। मैं भी अभिरत हूँ
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बोधिसत्त्व ने उस परिव्राजिका को इस प्रकार उपदेश दिया और धर्म की आराधना में प्रोत्साहित किया । परिव्राजिका ने आदर एवं श्रद्धा के साथ उपदेश ग्रहण किया । वह बोधिसत्त्व को प्रणाम कर, जहाँ जाना था, चली गई । उस दिन के अनन्तर फिर वे एक दूसरे से नहीं मिले । बोधिसत्त्व ने ध्यान-सिद्धि प्राप्त की। वे ब्रह्म-लोक गामी बने ।
शास्ता ने इस प्रकार उन पांच सौ भिक्षुओं के सम्मुख सत्य का प्रकाशन किया । भिक्षुओं ने स्वीकार किया । फलतः उन्होंने अर्हत्व - अर्हत् अवस्था प्राप्त की ।
शास्ता ने कहा- "राहुल- माता यशोधरा उस समय परिव्राजिका थी । उत्पलवर्णा पुत्री थी। राहुलकुमार पुत्र था तथा प्रव्रजित तो मैं ही था । "
गान्धार जातक
प्रत्येक बुद्ध गान्धारराज तथा विदेहराज के सम्बन्ध में गान्धार जातक में जो वर्णन आया है, वह कुंभकार जातक में प्रतिपादित घटनाक्रम से भिन्न है । जानकारी हेतु संक्षेप में उसका यहाँ उल्लेख किया गया है ।
राहुद्वारा चन्द्र का ग्रास : गान्धारराज को वैराग्य
पूर्णिमा की रात थी। गांधार देश का राजा अपने राज- प्रासाद की ऊपरी सतह पर मंत्रियों के साथ मंत्रणा कर रहा था। रात का प्रथम प्रहर था। चाँदनी प्रतिक्षण बढ़ती ही प्रतीत हो रही थी । राजा राज-मन्त्रणा में घुलता जा रहा था । सहसा चाँदनी घटने लगी । घटते घटते वह इतनी कम हो गई, मानो चन्द्रमा अस्त ही हो रहा हो। राजा का ध्यान टूटा । आकाश की ओर झांका, देखा, चाँद भी शिखर पर है और आकाश में बादल भी नहीं हैं। राजा विस्मित भाव से मंत्रियों की ओर झांकने लगा। किसी मन्त्री ने कहा - - "राहु द्वारा चन्द्रमा ग्रसित हुआ है । आज चन्द्र ग्रहण है।"
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राजा के मन पर एक धक्का-सा लगा- इतना स्वच्छ और परिपूर्ण चन्द्रमा, उसका मी राहु के द्वारा ग्रहण ? चन्द्रमा गगन का राजा है । मैं पृथ्वी का राजा हूँ । उसका ग्रहण राहु कर सकता है तो मेरा ग्रहण काल (मृत्यु) के द्वारा कभी हो सकता है । राजा को विराग हुआ । जगत् और जीवन की नश्वरता को उसने जाना । अगले ही दिन वह समग्र राज- वैभव को ठुकरा कर भिक्षु बन कर राजमहल से निकल पड़ा ।
विदेहराज प्रेरित
सुदूर देशों में बात फैल गई — गांधार- नरेश भिक्षु बनकर घर से निकल पड़ा है।
१. आमं पक्कं जानन्ति, अथो लोणं अलोणकं । तमहं दिस्वान पब्बजि, चरेव त्वं चरामहं ॥८॥
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