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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड:३ कुम्भकारी पति से पूर्व प्रवजित
जब कुम्भकारी ने अपने पति का कथन सुना तो वह बोली- “स्वामिन् ! जब से प्रत्येक बुद्धों का वृत्तान्त सुना, तब से मेरा चित्त घर में परितोष नहीं पाता।"
उसने आगे कहा-"यही समय है, अन्य नहीं। पश्चात् मुझे कोई अनुशास्ताउपदेश्य प्राप्त नहीं होगा। भार्गव ! मैं भी पुरुष के हाथ से-व्याध के हाथ से छूटी पक्षिणी की ज्यों एकाकिनी विचरण करूंगी--प्रवजित हंगी।"३ ।
बोधिसत्त्व ने उसकी बात सुनी। वे चुप रहे। उनकी पत्नी की इच्छा अपने पति से पहले ही प्रवजित होने की थी। इसलिए उसने एक चालाकी की। वह बोली-स्वामिन् ! मै पानी लेने जा रही हूँ। आप बच्चों की देखभाल करें।" उसने घड़ा लिया, पनिहारिन की तरह चली। कुछ दूर जाने के बाद उसने भागकर नगर की सीमा पार की। वहाँ तपस्वियों का आश्रम था। आश्रम में पहुंची और प्रव्रज्या स्वीकार की। बोधिसत्त्व को जब यह ज्ञात हआ कि कभकारा नहा आयगीता व ब'
कि कंभकारी नहीं आयेगी तो वे बच्चों का स्वयं पालन-पोषण करने लगे।
बोधिसत्त्व द्वारा अपने बच्चों की परीक्षा
बच्चे कुछ बड़े हुए, होश सम्हाला । तब उनकी समझ की परीक्षा के लिए बोधिसत्त्व ने एक दिन भात पकाते समय कुछ कच्चे रख दिये, एक दिन कुछ गीले रख दिये, एक दिन भलीभांति पकाये, एक दिन अधिक गीले रख दिये, एक दिन अलूने रख दिये, एक दिन अधिक नमक डाल दिया । जब-जब ऐसा हुआ, तब-तब बच्चों ने कहा-'तात ! भात आज कच्चे हैं, आज कुछ गीले हैं, आज ठीक पके हैं, आज अधिक गीले हैं, आज अलूने हैं, आज बहुत नमक युक्त हैं।"
बोधिसत्त्व उत्तर देते-"हां, तात! ऐसे ही हैं।" वे सोचने लगे-बच्चे अब समझदार हो गये हैं। वे कच्चा, पका, गीला, अलूना, अधिक नमकीन–इत्यादि जानने लगे हैं। अब ये अपने भरोसे, अपनी क्षमता के सहारे जी सकेंगे। इसलिए अब मेरे प्रवृजित होने का उपयुक्त समय है। ऋषि-प्रव्रज्या-परिग्रहण : ध्यान-सिद्धि
बोधिसत्त्व ने बच्चे अपने सम्बन्धियों को सौंपे और उनसे कहा कि आप इनका भलीभांति पालन-पोषण करते रहें। पारिवारिक जनों को रोते-कलपते छोड़कर उन्होंने ऋषिप्रव्रज्या स्वीकार की। नगर के सीमावर्ती स्थान पर रहने लगे। एक दिन वे वाराणसी में भिक्षाटन कर रहे थे । गृहस्थ-काल की उनकी पत्नी-परिव्राजिका ने उनको देखा। उसने उनको प्रणाम किया और बोली-"आर्य ! लगता है, बच्चों का भविष्य आपने विलुप्त कर दिया ।" बोधिसत्त्व ने कहा- “ऐसा मत सोचो। मैंने बच्चों का भविष्य नष्ट नहीं किया।
२ अयमेव कालो न हि अनमो अस्थि,
अनुसासिता मे न भवेय्य पच्छा। अहम्पि एका चरिस्सामि भग्गव, सकुणीव मुत्ता पुरिसस्स हत्था ॥७॥
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