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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चार प्रत्येक बुद्ध : जैन एवं बौद्ध-परम्परा में ७०३ ने क्रमशः मारा, कष्ट दिया। यह देखा और मैंने भिक्षाचर्या—भिक्षु का जीवन अंगीकार किया।" चौथे ने कहा- मैंने एक उत्तमवर्ण-उत्तम आभायुक्त, शक्तियुक्त सांड को गोसमूह के मध्य देखा । फिर काम-वासना के कारण उसी सांड को मृत देखा। यह देखकर मैंने भिक्षाचर्या--भिक्षु-जीवन अंगीकार किया।"२ बोधिसत्व ने चारों प्रत्येक बुद्धों का कथन सुना। उनकी स्तुति की-"भन्ते ! यह उत्तम ध्यान आप ही के योग्य है । आप धन्य हैं।" चारों प्रत्येक बुद्धों ने धर्म कथा कही--धर्मोपदेश दिया । बोधिसत्त्व ने श्रवण किया। प्रत्येक-बुद्ध अपने स्थान पर चले गये। बोधिसत्त्व प्रव्रज्यार्थ उद्यत बोधिसत्त्व ने अपना प्रात:कालीन भोजन किया। वह सुख पूर्वक बैठा, अपनी पत्नी को बुलाया, उससे कहा- "भद्रे ! ये चारों प्रत्येक बुद्ध राजा थे। राज्य का परित्याग कर ये प्रवजित हुए। अब ये अकिञ्चन हैं-सर्वस्व त्यागी हैं, निर्बाध हैं-किसी भी प्रकार की बाधा से आक्रान्त नहीं हैं, निर्विघ्न हैं, प्रव्रज्या का-त्यागमय जीवव का आनन्द ले रहे हैं। मैं एक सामान्य जन हूँ। नौकरी द्वारा जीवन-निर्वाह करता हूँ। क्यों मैं गृहस्थ में फँसा रहूँ ! तुम बच्चों का पालन-पोषण करो, घर में रहो। "देखो-कलिंगराज करण्डु, गान्धारराज नग्गजी, विदेहराज निमि, पाञ्चालराज दुर्मुख-इन चारों राजाओं ने अपने-अपने राष्ट्रों का-राज्यों का परित्याग कर, अकिञ्चन-सर्वथा परिग्रह-शन्य होकर प्रव्रज्या ग्रहण की। "ये प्रज्वलित अग्नि की ज्यों तेजस्वी देवताओं के समान हमारे यहाँ आये । इनको हमने देखा। भार्गवि ! मैं भी काम-भोगमय उपाधियों का परित्याग कर एकाकी विचरण करूंगा-प्रव्रजित जीवन स्वीकार करूंगा।"3 १. दिजं दिजं कुणपमाहरन्तं, एकं समानं बहुका समेच्च । आहारहेतु परिपातयिंस, तं दिस्वा भिक्खाचरियं चरामि ॥३॥ २. उसभाहमदं यूथस्स मज्झे, चलक्ककं वण्णबलूपपन्न । तमद्दसं कामहेतु-वितुन्नं, तं दिस्वा भिक्खाचरियं चरामि ॥४॥ ३. करकण्डुनाम कलिङ्गानं, गान्धोरानञ्च नग्गजी, निमि राजा विदेहानं, पञ्चालानं च दुम्मुखो। एते रट्ठानि हित्वान, पवजिसु अकिञ्चना ॥५॥ सब्बे पि मे देवसभा समागता, अग्गि यथा पज्जलितो तथेविमे। अहम्पि एको व चरिस्सामि भग्गवि, हित्वान कामानि यथोधिकानि ॥६॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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