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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ अस्थिर बना देने वाले इन काम-भोगों का मैं परित्याग कर दूं।
यों चिन्तन-क्रम में राजा गहरा पैठता गया, अनित्य, दुःख एवं अनात्म पर विचार किया, उसमें विपश्यना-भाव उद्भूत हुआ, वृद्धिंगत हुआ। खड़े-खड़े ही वह प्रत्येक बुद्ध हो गया।
आगे प्रत्येक बुद्ध करण्डु की ज्यों सब घटित हुआ। प्रत्येक बुद्धों द्वारा बोधिसत्व को अपना-अपना परिचय
एक दिन का प्रसंग है, चारों प्रत्येक बुद्ध भिक्षाटन का समय ध्यान में रखकर नन्दमूल पर्वत से निकले । अनुतप्त सरोवर पर आये। नागलता की टहनी से दातुन किया, शौच आदि से निवृत्त हुए। मनः शिला तल पर खड़े हुए। उन्होंने चीवर धारण किये । बुद्धबल द्वारा वे आकाश में ऊंचे उड़े, पंचरंगे बादलों को चीरते हुए वे वाराणसी नगरी के द्वारग्राम के पास ही कुछ दूर आकाश से नीचे उतरे । वहाँ वे एक आराम के स्थान पर रुके, वस्त्र ठीक किये, पात्र लिये, गाँव में प्रवेश किया। भिक्षार्थ पर्यटन करते हुए बोधिसत्त्व के घर के दरवाजे पर पहुंचे।
बोधिसत्त्व ने उनको देखा । बड़े प्रसन्न हुए। उन्हें अपने घर में लिवा लाये, आसन बिछाये, उन्हें बिठाया । दक्षिणोदक समर्पित किया, श्रेष्ठ भोजन परोसा । एक ओर बैठकर इन चारों में संघ-स्थविर को नमस्कार कर पूछा-"भन्ते! आपकी प्रव्रज्या अत्यन्त शोभान्वित है। आपकी इन्द्रियाँ प्रशान्त हैं। आपकी छवि-देह-द्युति, आभा सुन्दर है । किस बात का ध्यान कर आपने यह प्रव्रजित जीवन स्वीकार किया?" संघ-स्थविर की ज्यों वह औरों के भी पास गया। और क्रमशः सबको प्रणाम किया, वही पूछा, जो संघ-स्थविर से पूछा था। चारों प्रत्येक बुद्धों ने अपना-अपना परिचय बताया-वे अमुक-अमुक नगर में अमुक-अमुक नाम के राजा थे। उन्होंने यह भी बताया कि वे किस प्रकार प्रत्येक बुद्ध हुए, अभिनिष्क्रान्त हुए। प्रत्येक ने संक्षेप में अपनी-अपनी घटना का सारांश बताया। एक ने कहा- "जंगल में एक आम का वृक्ष देखा । वह हरा-भरा था । फलों से लदा था। ऊँचा उठा था। मैंने देखाफलों के कारण वह विभग्न कर दिया गया-तोड़-मरोड़ दिया गया। उसे देखकर मैंने भिक्षाचर्या-भिक्षु-जीवन स्वीकार किया ।"१
। दूसरे ने कहा- "सकुशल कारीगर द्वारा निर्मित सुन्दर कंगन-युगल को एक नारी ने एक-एक कर अपने हाथों में पहन रखा था। एक-एक हाथ में एक-एक होने से वे नि.शब्द थेकोई आवाज नहीं करते थे। किन्तु, जब दोनों एक हाथ में आ गये-पहन लिए गये तो वे शब्द करने लगे । यह देखकर मैंने भिक्षाचर्या-भिक्षु-जीवन स्वीकार किया।"
तीसरे ने कहा-"मांस का टुकड़ा ले जाने वाले एक एक पक्षी को बहुत से पक्षियों
१. अम्बाहमहं वनमन्त रस्मि, नीलोभासं फलितं संविरुलहं। तमद्दसं फलहेतुविभग्गं, तं दिस्वा भिक्खाचरियं चरामि ॥१॥ २. सेलं सुभट्ठे नरवीर-निहितं, नारी युगं धारयि अप्पसई । दुतियञ्च आगम्य अहोसि सद्दो, तं दिस्वा भिक्खाचरियं चरामि ॥२।।
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