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________________ तस्व : आचार: कथानुयोग ] कथानुयोग - चार प्रत्येक बुद्ध : जैन एवं बौद्ध परम्परा में ७०१ प्रत्येक बुद्ध विदेह नामक राष्ट्र था । मिथिला नामक नगरी थी, जो उसकी राजधानी थी । वहाँ के राजा का नाम निमि था । एक दिन प्रातःकालीन भोजन के पश्चात् वह राजमहल के झरोखे के पास खड़ा था । मंत्रियों से घिरा था । वह झरोखे से गली की ओर देख रहा था। एक चील ने एक सूनी दूकान से मांस का एक टुकड़ा उठा लिया और वह आकाश में उड़ गई। इधर-उधर के गीध आदि पक्षियों की उस पर नजर पड़ी। वे वह मांस का टुकड़ा उससे छीनने के लिए झपटे, उसे अपनी चोंचों से बिद्ध — क्षत-विक्षत करने लगे, परों से ताडित करने लगे, पंजों से आहत करने लगे । वह चील ये आघात नहीं सह सकी। उसने वह मांस का टुकड़ा गिरा दिया। उसे एक दूसरे पक्षी ने उठा लिया । आक्रामक पक्षियों ने चील का पीछा छोड़ दिया और उस पक्षी का पीछा किया। उसके साथ भी उन्होंने वैसा ही किया, जैसा चील के साथ किया था। उसने भी उस मांस के टुकड़े को गिरा दिया। किसी दूसरे पक्षी ने उसे उठा लिया । उसकी भी वही हालत हुई । उसे भी पक्षी उसी प्रकार सताने लगे तो उसने भी गिरा दिया। राजा ने यह सब देखा, अवेक्षण किया, चिन्तन किया, अन्तः प्रतीति हुई जिस-जिस पक्षी ने मांस के टुकड़े को पकड़ा, वह सताया गया, उसे कष्ट हुआ। जिस-जिसने उसे छोड़ा, उसकी तकलीफ मिट गई, उसने सुख की सांस ली। इसी प्रकार संसार के पाँच काम भोगों को जो-जो ग्रहण करता है, उसे कष्ट होता है, जो छोड़ता है, उसे सुख होता है । बहुत के पास तो काम भोगों के साधारण, सीमित साधन हैं, मेरे पास तो विपुल हैं, सोलह हजार नारियाँ मेरे अन्तःपुर में हैं जिस प्रकार उस चील ने मांस के टुकड़े को छोड़ दिया, उसी प्रकार मुझे पाँचों काम-भोगों का परित्याग कर देना चाहिए, सुख एवं आनन्द के साथ रहना चाहिए । राजा खड़ा खड़ा यों चिन्तन की गहराइयों में पहुँचता गया । उसने अनित्य, दुःख एवं अनात्म – तीनों पर विचार किया, उसमें विपश्यना की भावना जागरित हुई, अभिवर्द्धित हुई । यों खड़े-खड़े ही उसे प्रत्येक बोधि का साक्षात्कार हुआ। आगे प्रत्येक बुद्ध करण्डु की ज्यों ही सब घटित हुआ । प्रत्येक बुद्ध दुर्मुख उत्तर- पाञ्चाल नामक राष्ट्र था । काम्पिल्य नामक नगर था, जो उत्तर पाञ्चाल की राजधानी था। वहाँ के राजा का नाम दुर्मुख था । प्रात:कालीन भोजन कर चुकने के बाद राजा अपने महल के झरोखे के पास खड़ा था । गहनों से सजा था । अपने मंत्रियों से घिरा था । वह झरोखे में राजमहल के प्रांगण की ओर देख रहा था । उसी समय गोपालकों ने व्रज का - - गोशाला का दरवाजा खोला। सांड गोशाला से निकले । कामुकता वश उन्होंने एक गाय का पीछा किया। एक तीखे सींगों वाले बलिष्ठ सांड ने एक दूसरे सांड को आते देखा । ज्यों ही वह समीप आया, कामेर्ष्या वश क्रुद्ध हो उसने अपने तीक्ष्ण सींगों से उसकी जंघा पर प्रहार किया । प्रहार भयानक था । उसके जोर से आहत सांड की आंतें बाहर निकल आईं । उसी क्षण उसके प्राण पखेरू उड़ गये । राजा ने यह देखा, अन्तर्मन्थन चला — सारे प्राणी, क्या पशु, क्या मनुष्य काम-वासना के कारण दुःख झेलते हैं, दुर्दशा ग्रस्त होते हैं । अभी यह सांड कामुकता के कारण ही मृत्यु का ग्रास बना । अन्य प्राणी भी काम वासना के कारण ही भयाक्रान्त रहते हैं, काँपते हैं। मुझे चाहिए, प्राणियों को विचलित कर देने वाले, Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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