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________________ ७०० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ अमात्यों ने कहा- “महाराज ! आप खड़े हैं, बहुत समय हो गया।" "मैं राजा नहीं हूँ, प्रत्येक-बुद्ध हूँ।" "देव ! प्रत्येक-बुद्ध आपके सदृश नहीं होता।" "वे कैसे होते हैं ?" "उनके मुख तथा मस्तक के केश मुण्डित होते हैं । वे वायु-विदलित मेघों से तथा राहु से मुक्त चन्द्र के सदृश होते हैं। वे हिमालय-प्रदेश में नन्दमूल पर्वत पर निवास करते हैं। "राजन् ! प्रत्येक बुद्ध इस प्रकार के होते हैं।" उसी समय राजा ने अपना हाथ उठाया, उससे मस्तक का स्पर्श दिया। तत्क्षण गृहस्थवेष विलुप्त हो गया, श्रमण-वेष आविर्भूत हो गया। योग युक्त भिक्षु के तीन चीवर, एक पात्र, एक छुरी-चाकू, एक सूई, एक काय-बन्धन तथा एक जल छानने का वस्त्र-ये आठ परिष्कार होते हैं। ये आठ परिष्कार उसकी देह से संलग्न ही प्रकटित हुए । वह आकाश में खड़ा हुआ, लोगों को धर्मोपदेश दिया और आकाश-मार्ग द्वारा उत्तर हिमालय-प्रदेश में नन्दमूल पर्वत पर चला गया। प्रत्येक बुद्ध नग्गजी गान्धार नामक राष्ट्र था। तक्षशिला नामक नगर था, जो गान्धार राष्ट्र की राजधानी था। वहां के राजा का नाम नग्गजी था। वह राजमहल की छत पर सुन्दर आसन पर बैठा था। एक स्त्री को देखा । वह अपने एक-एक हाथ में एक-एक कंगन पहने थी। वह बैठी सुगन्धित पदार्थ पीस रही थी। एक-एक हाथ में एक-एक कंगन था, वह किससे टकराए, किससे रगड़े खाए, अत: कोई आवाज नहीं होती थी। थोड़ी ही देर बाद पीसे हुए सुगन्धित पदार्थ को समेटने हेतु उसने अपने दाहिने हाथ का कंगन बाँयें में डाल लिया । दाहिने हाथ से उसे समेटते हुए पीसने का काम भी जारी रखा। अब बायें हाथ में दोनों कंगन थे। सुगन्धित पदार्थ पीसते समय हाथ हिलते रहने के कारण परम्पर टकराते थे, आवाज करते थे। राजा ने उन दो कंगनों को आपस में टकराते देखा, आवाज करते सुना। वह सोचने लगा-जब कंगन अकेला था, तब वह किसी से रगड़ नहीं खाता था, टकराता नहीं था, आवाज नहीं करता था। अब दो हो जाने से वे परस्पर टकराते हैं, आवाज करते हैं। यही स्थिति संसार के प्राणियों की है । जब वह अकेला होता है, किसी से टकराता नहीं, शान्त रहता है। मैं कश्मीर तथा गान्धार-दो राज्यों को स्वामी हूँ। दो राज्यों के निवासियों को उनके अभियोगों पर फैसले देता हैं। मुझं चाहिए, अकेले कंगन की तरह शान्त होकर, दूसरों पर अपने फैसले न थोपकर मैं अपना ही अवेक्षण करता हुआ, चिन्तन मनन करता हुआ रहता रहूं। यों परस्पर टकराते कंगनों का ध्यान करते-करते उसने अनित्य, दुःख एवं अनात्म-तीनों पर विचार किया, मन्थन-मनन किया। उसमें विपश्यना-भाव जागा, वद्धित हुआ। उसने बैठे-बैठे प्रत्येक बोधि का साक्षात्कार कर लिया। आगे प्रत्येक-बुद्ध करण्डु की ज्यों सब घटित हुआ। १. ती चीवरञ्च पत्तो च, वासि सूची च बन्धनं । परिस्सावणेन अटेते, युत्तयोगस्स त्रिखुनो। ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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