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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चार प्रत्येक बुद्ध : जैन एवं बौद्ध-परम्परा में ६६६
बोधिसत्त्व द्वारा कुम्भकार के घर जन्म
पूर्व समय का प्रसंग है, वाराणसी में राजा ब्रह्मदत्त राज्य करता था, बोधिसत्त्व ने वाराणसी के द्वार-ग्राम में नगर के प्रवेश-द्वार के समीप बसे गाँव में एक कुम्भकार के घर में जन्म लिया। बड़े हुए। विवाह हुआ। एक पुत्र हुआ, एक पुत्री हुई। अपना परम्परागत कुम्भकार-व्यवसाय करते हुए वे परिवार का पालन करने लगे।
प्रत्येक बुद्ध करण्डु तभी की बात है, कलिंग नामक राष्ट्र था। दन्तपुर नामक नगर था, जो उसकी राजधानी थी। वहाँ के राजा का नाम करण्डु था । एक दिन राजा अपने बहुत से परिजनों, तथा नागरिकों के साथ क्रीडा-विनोद हेतु उद्यान में जा रहा था। उसने एक आम का पेड़ देखा. जो फलों से लदा था। राजा हाथी पर आरूढ था। उसने हाथी पर बैठे-बैठे ही अपना हाथ बढाकर उस पेड से एक आम तोड लिया। राजा उद्यान के भीतर पहँचा, वहाँ मंगलशिला पर बैठा, जिनको जो देना था, दिया, आम खाया।
राजा के साथ जो लोग थे, उन्होंने सोचा-हम भी आम खाएं। मन्त्री, ब्राह्मणगहपति आदि ने आम गिराये और खाये । आमों का तोड़ा जाना जारी रहा। पीछे से जो लोग आये, वे पेड़ पर चढ़े, मोगरी से उसे पीटा, डालियों को छिन्न-भिन्न कर डाला, तोड़-मरोड़ डाला, कच्चे आमों को भी गिराया और खाया।
दिन भर राजा उद्यान में क्रीड़ारत रहा, मनोरंजन में लगा रहा। सायंकाल अपने सुसज्जित हाथी पर आरूढ हुआ और उद्यान से चला । जाते समय जिस वृक्ष से आम तोड़ा था, उस वृक्ष को देखा। राजा हाथी से उतरा, उस वृक्ष के नीचे गया, उसकी ओर दृष्टिपात किया और विचारने लगा-यह वही वृक्ष है, जो आज सुबह देखने में बड़ा मनोज्ञ और सुन्दर था, फलों से लदा था। अब वही फलों से रहित है, छिन्न-भिन्न है-तोड़ा-मरोड़ा हुआ है, बड़ा असुन्दर-भद्दा प्रतीत होता है।
पास में ही एक और आम का पेड था । वह फल-रहित था। पर. वह अपनी स्वाभाविक अवस्था में बड़ा सहावना लगता था. मण्डमणि पर्वत की तरह सुन्दर लगता था। राजा चिन्तन की गहराई में पैठने लगा। सोचने लगा-फल युक्त होने से ही पहले वृक्ष की वैसी दुर्गति हुई। यह गृहस्थ-जीवन फलयुक्त वृक्ष के तुल्य है । प्रव्रज्या फल रहित वृक्ष के तुल्य है। जो धन-संपन्न है, वैभवयुक्त है, उसे भय है। जो अकिञ्चन है---जिसके पास कुछ भी नहीं, उसे कहीं कोई भय नहीं है । मुझे भी चाहिए, मैं फल रहित वृक्ष के समान बनूं।
यों फलयुक्त वृक्ष का ध्यान करते हुए राजा ने वहाँ वृक्ष के नीचे खड़े-खड़े ही अनित्य, दुःख एवं अनात्म-इन तीनों लक्षणों पर चिन्तन-मन्थन किया। उसमें विपश्यना-भाव जागरित हुआ, अभिवद्धित हुआ। उसे खड़े-खड़े प्रत्येक बोधि-ज्ञान प्राप्त हो गया। वह पुनःपुनः चिन्तन करने लगा-माता की कुक्षि रूप कुटी का मैंने नाश कर दिया है, तीनों लोकों में जन्म होने की संभावना को मैंने छिन्न-भिन्न कर दिया है, संसार रूप कर्दममय स्थान का मैंने परिशोधन-परिष्कार कर दिया है, अस्थियों का प्राचीर मैंने तोड़ दिया है। अब पुन: मैं जन्म में नहीं आऊंगा। इस प्रकार चिन्तन में लीन, सब आभरणों से विभूषित वह राजा वहाँ खड़ा रहा।
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