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६६४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ राजा एक आम्रवृक्ष के नीचे से गुजरा । आम्र-शाखाओं पर सुकुमार, सुरभित मंजरियां खिली थीं। उनकी भीनी-भीनी गन्ध से राजा का मन उत्फुल्ल हो उठा। मंजरियों के भार से झुकी हुई शाखाएँ राज छत्र का स्पर्श करने लगीं। राजा ने अपना हाथ ऊँचा उठाया, एक मंजरी तोड़ी, उसे सूंघा। सुरभि से राजा आह्लादित हो उठा। वह आगे निकल गया।
राजा के पीछे-पीछे चलते अमात्यों ने, सामन्तों ने. अधिकारियों ने भी मंजरियां तोड़ी। पीछे सैनिक थे। उन्होंने चाहा, वे भी मंजरियां तोड़ें, किन्तु, मंजरियां समाप्त हो चुकी थीं। तब उन्होंने मस्ती से आम्र-वृक्ष की छोटी-छोटी शाखाओं को ही तोड़ लिया। उनके बाद नागरिक भी अपने को रोक नहीं सके । वे वृक्ष पर चढ़-चढ़ कर शाखाएँ, कोंपल, पत्ते-जो भी हाथ आये, तोड़ते गये। यों थोड़ी ही देर में लोगों ने वृक्ष को बुरी तरह नोंच डाला । कुछ देर पूर्व लहलहाता हरा-भरा वृक्ष कुछ देर बाद एक निष्पत्र, निष्पुष्प नंगा ढूंठ हो गया।
दिन भर राजा नग्गति ने वन-विहार किया । सायंकाल वह वापस मुड़ा । उसी वृक्ष के पास से गुजरा । सहज ही ऊपर की ओर निहारा, वृक्ष के स्थान पर उसके कंकाल जैसा नंगा ढूंठ उसे दृष्टिगोचर हुआ, जिसके न शाखाएँ थीं, न टहनियां थीं, न मंजरियाँ थीं, न कोंपलें थीं और न पत्ते ही थे। थोड़ी ही देर में ये सब विलुप्त हो गये । राजा विस्मयविमुग्ध हो उठा-क्या से क्या हो गया? जो वृक्ष भीनी-भीनी गन्ध से महक रहा था, हराभरा था, बड़ा सुहावना और लुभावना था, जिस पर भौंरे मंडरा रहे थे, कोयलें बोल रही थीं, अब कुछ भी नहीं था। राजा विचार में पड़ गया।
साथ चलते अमात्य, सामन्त राजा का आशय समझ गये । उन्होंने वह सब बताया, जो घटित हुआ। राजा अन्तर्मुखीन हुआ। तल स्पर्शी चिन्तन में पैठने लगा, वस्तु-स्वरूप, जगत् के स्वरूप पर ऊहापोह करने लगा। उसे अनुभूत हुआ—निश्चय ही यह जगत् अशाश्वत है, अस्थिर है । इसका सौन्दर्य, वैभव सब विनश्वर है। जो हम प्रातःकाल देखते हैं, मध्याह्न में वैसा नहीं दीखता । वह मिट जाता है। जो मध्याह्न में देखते हैं, वह सायंकाल कहाँ रहता है ? इस जगत् में रूप, तारुण्य, लावण्य, ऐश्वर्य-कुछ भी स्थिर नहीं है, सब क्षणभंगुर हैं। कौन जाने, जीवन के हरे-भरे वृक्ष को यह कराल काल किस समय नोंच डाले, ध्वस्त कर दे।
राजा का चिन्तन उत्तरोत्तर ऊर्ध्वमुखी होता गया। उसे जाति-स्मरण ज्ञान हो गया, अपना पूर्व भव याद हो आया। उसमें अन्तर्बोध जागरित हुआ। वह प्रतिबुद्ध हो गया। उसने अपने पुत्र को राज्य सौंप दिया। वह वापस महल में नहीं गया। वहीं से वन की ओर निष्क्रमण कर गया, श्रमण हो गया। देवों ने उसे श्रमणोचित वस्त्र, पात्र आदि भेंट किये। यों राजा नग्गति प्रत्येक बुद्ध हुआ, साध्य-सिद्धि में तन्मय हुआ, जनपद-विहार करने लगा?
१. आधार- उत्तराध्ययन सूत्र, नवम अध्ययन, कमल संयमाचार्यकृत टीका।
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