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तत्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चार प्रत्येक बुद्ध : जैन एवं बौद्ध-परम्परा में ६६३
हाथ में पहने हुए रत्नों से जडे कंगन पर मुक्ताओं द्वारा अंकित 'कनकमाला' नाम पर राजा की सहसा दृष्टि पड़ी। राजा की खुशी का पार नहीं था। ऐसी दिव्य सौन्दर्यमयी, स्नेहमयी पत्नी पाकर वह हर्ष से झूम उठा।
सुखमय दाम्पत्य
राजा सिंहरथ कनकमाला के साथ वहाँ आनन्द पूर्वक रहने लगा। इस अपूर्व हर्षोल्लास में राजा अपने राज्य, परिवार, परिजन-सबको मानो भूल-सा गया। यों एक मास का समय चन्द क्षणों की ज्यों व्यतीत हो गया।
राजा का अपने राज्य की ओर ध्यान गया। उसने सोचा- कहीं ऐसा न हो, मुझे अनपस्थित देखकर मेरे शत्र मेरा राज्य हथिया लें। उसने कनकमाला से कहा--"सुन्दरी ! अब हम अपने राज्य में चलें. बहत समय हो गया।"
उसी समय वह व्यन्तर देव प्रकट हुआ, बोला-"राजन् ! मेरे लिए मेरी पुत्री कनकमाला ही एकमात्र स्नेह-सम्बल है । उसके बिना मैं नहीं रह सकता । कनकमाला भी यहीं रहे, तुम भी यहीं रहो। मैं तुमको आकाशगामिनी विद्या सिखला देता हूँ, जिसके सहारे तुम स्वल्प समय में ही अपने राज्य में जा सकते हो। वहाँ के कार्यों का निरीक्षण कर यहाँ शीघ्र वापस लौट सकते हो।"
नगगति : नग्गति
राजा ने देव का प्रस्ताव स्वीकार किया। उससे आकाशगामिनी विद्या प्राप्त की। शीघ्र ही वापस लौटने का वायदा कर राजा अपने राज्य में आया। सभी परिजन अत्यन्त हर्षित हुए। दो-चार दिन व्यतीत हुए, राजा को कनकमाला का वियोग असह्य जान पड़ा। वह पक्षी की ज्यो आकाश में उड़ता हुआ पर्वत पर पहंच गया।
राजा ने ऐसा क्रम स्वीकार किया, वह दिन में अपनी राजधानी में रहता और रात को अपनी प्रियतमा कनकमाला के पास पर्वत पर पहुँच जाता। पर्वत या नग पर आतेजाते रहने के कारण वह नगगति या नग्गति कहा जाने लगा। उसका यह नाम इतना विख्यात हो गया कि सिंहरथ के स्थान पर अब सब उसे नग्गति के नाम से पुकारने लगे।
राजा ने उस पर्वत पर एक विशाल नगर बसाया। नगर का नाम नग्गतिपुर रखा। उसे अपनी राजधानी बनाया। वह वहां अपनी रानी कनकमाला के साथ सानन्द सांसारिक सुख भोगता हुआ रहने लगा, राज्य करने लगा।
अन्तर्बोध का जागरण
___ एक बार का प्रसंग है, वसन्त ऋतु का आगमन हुआ। प्रकृति हरीतिमा, सुषमा और सौन्दर्य से झूम उठी। वृक्ष खिल उठे। लताएं इठलाने लगीं । अभिनव आम्र-मंजरियां शाखाओं पर झूमने लगीं। कोकिलाओं के कूजन से वनराजि मुखरित हो उठी। जन-जन में उल्लास छा गया। लोग आनन्द-निमग्न हो वन-क्रीडा हेतु जाने लगे।
सुन्दर, मोहक वातावरण ने राजा नग्गति को भी उत्प्रेरित किया। उसमें वन-विहार करने का उल्लास जागा। अपने अमात्यों, सामन्तों तथा सैनिकों के साथ वह तदर्थ निकला। सहस्रों नागरिक अपने प्रिय राजा के साथ हो गये ।
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